Tuesday, October 30, 2007

शायद यही है सच

शायद यही है सच

एक दूसरे के लिए

कुछ पाने और सब खोने

की तमन्‍ना

शायद यही सच है

एक दिन

सब रिश्‍ते

ऐसे ही

रूक जाते है

जैसे

पानी कहीं

बहता

रूका पडा हो

किसी झील में

शायद यही सच है

शायद ....

Monday, October 29, 2007

रात जब

रात जब

दफ़तर से लौट रहा था

मेरे साथ मेरा गम भी था

उसने पूछा

दफ़तर से घर जाते वक्‍त

मुझसे कुछ सवाल

तन्‍हाईयो से भरे

उदास करता गया

तब सामने से एक रोशनी आई

देखा

जिंदगी सडक पर लोट रही थी

परछाईयां

परछाईयां

कल रात एक सपना आया

कुछ काली परछाईया

आपस में लड रही थी

अंधेरा घना था

और परछाईया

और काली थी

अचानक एक बिजली सी चमकी

उजाले के आभास ने

विचारों को तोडा

देखा तो मेरा चेहरा

दूसरे चहरे से जिरह कर रहा था

दूसरा भी

मैं ही था ,,,,

Sunday, September 23, 2007

आपके साथ

मैं आप के साथ रहना चाहती हूँ
मैं आप के साथ जीना चाहती हूँ
हाथों मे हाथ डाल खिलखिलाना चाहती हूँ
कंधे पर सिर रख रोना चाहती हूँ
मैं आपको पाना चाहती हूँ
मैं आपके साथ जीना चाहती हूँ

बिन आपके नही जी पाऊँगी
निर्जीव हो जाउंगी मैं
कैसे रह पाऊँगी मैं
भला प्राण के भी कोई साँस ले पता है
बिना आत्मा के शारीर रह पाता है
तो फिर कैसे सोच लिया तुमने
रह लुंगी मैं तुम बिन
मेरा प्यार हो तुम
रक्त संचार हो तुम
मेरी हिम्मत हो तुम
मेरा हाथ पकड़ आगे बढ़ने कि सीख देते हो तुम
मेरा दामन थाम चलते रहना तुम
जब तक साँस रहेगी मैं आप के साथ रहूंगी ।

दल-दल

ऐसे दलदल मे मे फसती जा रही हूँ
जिसमे ना डूब रही हूँ
और ना ही निकल पा रही हूँ।
असहज सी होती जा रही है ज़िन्दगी
देखती हूँ आकाश कि ओर
शायद कोई आशा कि किरण दिख जाए
पकड़ ले कोई हाथ मेरा
जीवन को आधार मिल जाए।
कही भी जाऊ ,कुछ भी करूं
तुम सामने से ओझल होते नही
कैसे अपने आप को समझाऊ
वो मेरा है ही नही
शायद मैं ही नही
तुम्हारे लायक
और क्या कहूँ
भूल नही पाती हूँ तुम्हे
एक छड के लिए भी
वो पल जो हमने साथ बिताये
वो खट्टी मीठी यादें
क्या इसी कशमकश मे जीते रहेंगे हम
जीवन यूं ही दल- दल मे फंसी रह जाएगी।

ज़िन्दगी

तुम कितने अजनबी थे
जब आए थे हमारे ज़िन्दगी मे
विश्वास नही होता
आज ज़िन्दगी बन गये हो तुम
हमारे जीवन मे रौशनी फैलाये हो
हमे खुशियों के सागर मे डुबोया है
दिल का कोना-कोना झिलमिलाया है
मेरे तन-मन को मह्काया है
हर ख्वाब दिखाया
दिल चौक उठता है जब
अहसास होता है
तुम हमारे नही हो
सारा विश्वास चकनाचूर हो जता है
आस्था चरमरा जाती है
तुम्हारे बिना ज़िन्दगी
kaap जाती हूँ
प्रशन करती हूँ ?
क्या बिच मझधार मे छोड जाओगे
क्या अंत तक साथ न दे पाओगे
या कश्ती को भवर मे डाल जाओगे
अब देखती हूँ तुम्हे, तो लगता है
तुम थे ही नही हमारे
बस कुछ समय के लिए
ख्वाब बन, आ गाए थे हमारे पास
वो पल ही अब हमारी धरोहर है
उन्ही को संजोए
चलती रहेगी जिन्दगी हमारी।

अशांत मन

जिंदगी एक पहेली है
दुःख मेरी सहेली है
रह -रह के होता विच्लांत है
न जाने मन क्यों अशांत है

तन्हाईओ के तारो मे झनझनाहट है
मन के कोने मे एक आहट है
इस मोड पर नही किसी का सहारा
मझधार तो है पर नही किनारा
रह-रह के होता आक्रांत है
न जाने मन क्यों अशांत है

हर वक़्त नए मोड कि तलाश है
दूर धरती मुझसे दूर आकाश है
चारो तरफ फैला दुःख और नाश है
दिल मे जल रही फिर भी एक आस है
परेशानियो से मन विच्लांत है
न जाने मन क्यों अशांत है।

Thursday, September 20, 2007

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर,तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?क्षण भर को क्यों प्यार किया था?‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’और न कुछ मैं कहने पाया -मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?वह क्षण अमर हुआ जीवन में,आज राग जो उठता मन में -यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
-हरिवंश राय बच्चन

Thursday, August 30, 2007

मैं तुम्‍हें फ‍िर मिलूंगी


मैं तुम्‍हें फ‍िर मिलूंगी


मैं तुम्‍हें फ‍िर मिलूंगी
कहां ?
किस तरह ?
नहीं जानती


शायद तुम्‍हारे तख्यिल की चिंगारी बनकर
तुम्‍हारे कैनवस पर उतरूंगी
या शायद तुम्‍हारी कैनवस पर
रहस्‍यमय रेखा बनकर
खामोश तुम्‍हें देखती रहूंगी


या शायद सूरज की किरण बनकर
तुम्‍हारें रंग में घुलूंगी
या रंगों की बाहों में लिपटूंगी
पता नहीं
कैसे-कहां ?
पर तुम्‍हें जरूर मिलूंगी

या शायद एक चश्‍मा बनी हुई होउंगी
और जैसे झरना का पानी उड़ता है
मैं पानी की बूदें
तुम्‍हारे जिस्‍म पर मलूंगी
और ठंडक सी बनकर
तुम्‍हारे सीने के सा‍थ लिपटूंगी....

मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक्‍त जो भी करेगा
यह जन्‍म मेरे साथ चलेगा

यह जिस्‍म जब मिटता है
तब सब-कुछ खत्‍म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायानाती कणों के होते है
मैं उन कणों को चुनूंगी
धागों को लपेटूंगी
और तुम्‍हें मैं तुम्‍हें फ‍िर मिलूंगी....

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विदा

आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैलाकर
धरती को गले से लगा लिया
त्रि‍पुरा ने हरी चादर तन कफन पर डाली
और सुबह की लालिमा ने
आंखों का पानी पोंछकर
धरती के कंधे पर हाथ टिकाया
कहा-
थोड़ी से महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्‍हारी महक को
सीने में संभाल लिया है.....

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मैं तुम्‍हें फ‍िर मिलूंगी 2002 में लिखी. इस कविता के साथ अमता ( read Amrita) के लेखन की उम्र पूरी हो गई.
कल तक 84 बरसों से खयालों के दरिया में अपनी कश्‍ती में पलंग पर बैठी कविता लिखती, कविता जीती वह जिंदगी के पांचों दरियाओं को पल पल पार करती रही.....
और आजकल वह आने पलंग पर सांसो के पानियों में डोल रही
सिर्फ डोल रही.....

-इमरोज

Friday, August 3, 2007

तुम भी लम्हा बुनो ना....


एक लम्हा है..

प्यार का..

हौले से छू..

लो ना...

कब से..सूना है...

लम्हा.. अकेला सा...

सरगम..होठों पर..

सजने दो ना...

रूठ गया है..

वो लम्हा...

अल्ह्ड़ सा...

तुम जरा...

मना लो ना..

बहुत याद आता है..

वो भीगा लम्हा..

तुम ख्वाब में..

बुला लो ना...

गिरा है..

वक्त की शाख से..

एक लम्हा फ़िर..

तुम किताब में...

रख लो ना..

सर्द रात में..

ठिठुरता है लम्हा..

तुम बांहों में...

ले लो ना....

बरसता है...

बादल सा लम्हा..

तुम भी संग...

भीग लो ना...

वो उदास सा...

बैठा है लम्हा...

तुम कोसा सा...

बोसा ले लो ना..

वो उड़ चला लम्हा..

फ़िर बंजारा सा..

आओ तुम भी..

जरा संग चलो ना..






Thursday, July 26, 2007

चीख के आगे...

आपकी कानों तक "चीख" पहूंची इसके लिये धन्यवाद !!!
पर ये क्या-"खाया पिया कुछ नही, हाथ गया रूपया". सोचा था आपके अंदर जो कुछ कर गुजरने की चिंगारी है, वह भभकेगी... पर नहीं, आग उठी और बुझ गयी !
कई सवाल उठे. जिनका जवाब अवश्य दूंगा.
पहले तो आप या तुम शब्द की जगह 'हम' शब्द का प्रयोग इसलिये नही किया, क्योंकि इस 'हम' मे मैं भी शामिल हो जाता. तुम शब्द का प्र्योग तुम्हें जगाने के लिये था.
बिहार को ही सबसे पहले इस लिये चुना क्योंकि मै जड से "चीख" को हिलाना चाहता हूं. शुरूआत कहीं से न कहीं से तो करनी ही है, तो क्यों ना वहीं से की जाये जहां से शुरू करने पर पुरे देश पर ज्यादा असर पडे. और भारत एक है. क्रपा कर चीख को प्रांतवाद के दलदल मे ना घुसेडें. काम करना है तो करें, वरना कहीं और नज़र तलाशें.
कहा गया है यह धीमी प्रक्रिया है. पर रफ्तार कौन फूंकेगा ? हम और आप ही ना ! पहले पहल तो करो! अब इन निर्र्थक बातों का कोई लाभ नही. जितना जोश आपने दिखाया है, उसे यूं ही बरकरार रखने की जरूरत है.
सबसे पहले हम बिहार सरकार के इस बेब साईट पर मुख्यमंत्री के नाम अलग अलग इस संदर्भ मे लिखेंगे, ताकी बात राजनीतिक महकमों तक भी पहूंच जाये की हम सक्रिय हो चुके हैं.
gov.bih.nic.in
साथ ही मै आप लोगों से निवेदन करता हूं, इस संदर्भ मे और अपने विचार रखें, की कैसे इस ओर कदम बढाया जा सकता है. और कैसे इस चीख को खत्म किया जा सकता है.
मीडिया पे मैने कोई हस्तछेप नही लगाया है. बस याद दिलाने की कोशिश की है कि, आज लोगों का सहारा और विश्वास जो इस पर बना है उसे और प्रगाड करने की जरूरत है.
मैं आशा करता हूं की अब प्रतिक्रिया और आलोचनाओं मे अपनी कलम की स्याही बरबाद न कर के सिर्फ काम की बात करेंगे.
ईश्वर हमें शक्ति दे.................
.....................................................dimagless

Wednesday, July 25, 2007

बस एक पत्थर ही तो है....




अभी-अभी मारी है जिसे तुमने ठोकर...


सही कहते हो तुम...


वो रास्ते का रोड़ा..निर्जीव...


बस एक पत्थर ही तो है...


पर चमकते हैं जो आभूषणों में....


वो कीमती नगीने...वो अनमोल रत्न...


वो भी पत्थर ही तो हैं...


बना है जिससे प्रेम का ताजमहल...


वो अप्रतिम सौंदर्य...वो संगमरमर...


वो भी एक पत्थर ही तो है...


घिसते ही जिससे भड़के चिंगारी...


बन जाये जो आग... वो चकमक...


वो भी एक पत्थर ही तो है...


जहां लिखा तुमने पहला अक्षर...


वो पहला शिक्षण...वो स्लेट वो चाक...


वो भी पत्थर ही तो हैं....
जो बना दे लोहे को भी कुंदन..
वो अद्भुत स्पर्श...वो पारस...
वो भी केवल पत्थर ही तो है


पूजते हो जिसे तुम..कहते हो ईश्वर...


वो शिव-शंकर .. वो शालिग्राम...


वो भी पत्थर ही तो हैं...


पत्थरों से बनी ये दुनिया.. भी पत्थर..


खो चुकी जिनमें संवेदनायें.. वो बेजान बुत...


ये खामोश धड़कते तेरे-मेरे दिल...


सब केवल पत्थर ही तो हैं....


Tuesday, July 17, 2007

चीख़ !!

बना लो, जितनी बडी कम्यूनिटी बनानी है बना लो! घर में चाहे एकदूसरे को पहचानते हो या नहीं? पर बाहर अपनी एकजुटता का जितना ढिंढोरा पीटना है पीट लो! इंटरनेट पर ब्लोग बनालो! मीडिया में आपसी भाईचारे के नाम पे जितनी शोबाज़ी करनी है कर लो! पर कभी अपने घर मे झाँक कर नहीं देखना की तुम्हारे अपने 'बिहार' में कितने नीच और पतित समाज की फसल उग-बढ़ रही है ! पर तुम्हे इससे क्या? कहीं झड़प हुई चल दिये अपने बिहारीपन का परिचय देने! इंटरनेट पर बैठे और शुरु हो गयें भाईचारे का राग अलापने! पर कभी इस पर भी विचार किया है, कभी इस संबंध में भी कोई कदम उठाने की कोशिश की है की, जहां जिस मिट्टी में पले बढ़े हो, वहीं ऐसे कु-कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, जिसे सुनकर किसी भी भले मानुष की आंखे शर्म-सार हो जायें!

सुपौल, त्रिवेणीगंज की छेदनी देवी अब अपनी चहार दिवारी से पैर बाहर नहीं निकालती! उसके लिये घर का वह बंद कोना ही उसकी सारी दुनिया है! क्यों? क्योंकि, अब वह मुँह दिखाने के लायक नहीं है! पुरा इलाका उसके नंगे उघड़े बदन को देख चुका है! अस्मत तार तार हो चुकी है!अब कैसे वह तन पर कपड़ों के चंद टुकड़े लपेटे बाहर निकलेगी? इस समाज ने तो उसे पूरी तरह "पारदर्शी" बना दिया है! कसूर? कसूर यह है की वह 'डायन' है ऐसा समाज के चंद ठेकेदार कहते हैं, उसने उस इलाके की एक बच्ची पर टोटका कर के मार डाला है! और उसे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये! क्यों, है की नहीं ? भाई ऐसे समय पर ही तो एकत्व की भावना नज़र आती है ! फिर क्या, उस औरत के तन पर ढँकी उस चादर को बात की बात में निकाल फेंका गया ! अब निर्वस्त्र कर के उसे खड़े-खड़े देखते तो भला अच्छा लगता ? तो उसे पुरे मुहल्ले मे निर्वस्त्र घुमाया गया, उसे पीटा गया और इससे भी तमाशे मे आंनद नहीं आया तो, आंख फोड़ देने की धमकी देकर मैला पिलाया गया! खेल खतम, पैसा हज़म !!


हां!एक ब्रेकिंग न्यूज तो बताई ही नहीं ! इतना बड़ा तमाशा हुआ पर कोई OB-VAN पास नहीं फटकी! अजी वही OB-VAN जो चैनल वाले ले कर चलते है, Live Telecast करने के लिये! ताकी आप घर बैठे ही हो रही घटना का आनंद ले सके! ओह, सचमुच अफसोस रहा, नहीं ?? सीधा प्रसारण हो जाता तो मज़ा ही कुछ और होता!! नहीं ???


पर ज़रा रुकिये तो सही जनाब , अभी तो यह शुरुआत है! पटना के पहाड़ी मुहल्ले में एक बच्ची बीमार पड गयी! बस क्या था, आतताइयों ने इसके लिये कमला को ज़िम्मेदार बता दिया! उसे घर से खींचकर इतना पीटा गया की बेचारी वह तथाकथित "डायन" अधमरी हो गयी! कुछ और लोगों को यश मिला।


क्या कहा, कि इनके घर वाले कुछ नहीं करते? करते हैं साहब, ज्यादातर मामलों मे घर वाले ही सब कुछ करते हैं- समाज के ठेकेदारों से मिल के! हां, मगर कमला जैसे कुछ एक घरवाले आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं तो उनकी भी वो पिटाई होती है कि ऊपर बैठे उनके पुरखे तक ज़बान बन्द रखने की क़सम खा लेते हैं !


अब कहां तक बताएँ आपको! अब तो इस पंचायती राज में किसी की भी खैरियत नहीं साहब और ख़ास तौर पर अगर वो महिला है तो पहले इल्ज़ाम तय और तुरन्त फ़ैसला और उसपर तुर्रा ये कि अगर वो महिला दलित है तो सज़ाओं में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है। जैसे जाजापुर (गोह, औरंगाबाद) में वार्ड पार्षद शोभा देवी को डायन बताकर मारा-पीटा गया! और तो और कुछ दिनों पहले पूर्णिया शहर के बीचोंबीच हज़ारों लोगों ने पुलिस की मौज़ूदगी में सावित्री देवी को जान से ही मार डाला!अब लो इस औरत का भी कसूर पूछ रहे हो?कसूर बता बता कर तो थक गया अब कितनी बार बताउँ।


आखिर यह कैसी विकृत मानसिकता और अपराध को प्रशासन का संरक्षण है, जो किसी की बीमारी खातिर बस "मां बहन और बेटी" को दोषी ठहराती है और उसकी बाक़ायदा सजायाफ्तगी भी करती है ? मैं तुम से सिर्फ इस लिये कह रहा हूं की अगर हम बिहार के होकर भी कोई क़दम नहीं उठाते तो दुसरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?। हमारी यह मूक दर्शक भूमिका हमें हर स्तर पर 'अपराधी' ठहरायेगी ! राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को खत्म किया, और दयानंद जी ने विधवा पूनर्विवाह की शुरुआत उस माहौल में की जब धार्मिक रूढ़िवादिता की नींव को हिलाना तक संभव नहीं था ! तो क्या हम आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में इस "डायन प्रथा" को उखाड नहीं फेंक सकते हैं ? या फिर भू-मंडलीकरण के युग में भी हम यूँ हीं मध्ययुगीन कुरीतियों को मूक-बधिर होकर नज़र- अंदाज़ करते रहेंगे ?


सरकार ने डायन प्रथा विरोधी विधेयक बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है! आज भी यह विधेयक कोरे पन्नों मे क़ैद हो के रह गया है! आज जरुरत है इसे सख़्ती से लागू करवाने की!

उठो ! जागो !! वरना आज किसी की मां-बहन को नंगा करके मुहल्ले मे घुमा रहे हैं, गुप्तांगों को सलाखों से दाग रहे हैं, मल-मूत्र पिला रहे हैं, कल शायद हमारे-तुम्हारे घर की भी बारी आ जाये! तब चुल्लू भर पानी लेके डूब मरना! सिर्फ खाना खा कर दफ़्तर और घर आकर टी.वी. देखकर ज़िन्दगी मत ख़त्म करो ! मनुष्य हो तो मनुष्यता की रक्षा के लिये भी अपना योगदान दो! तभी 'स्त्री' का वास्तविक आदर होगा वो स्त्री जो किसी की माँ,बहन और बेटी है तभी उसका सच्चा सम्मान होगा। तभी एक सुंदर समाज की रचना होगी। वरना याद रखो यह "डायन" की आड़ में किया जा रहा बर्बर और पैशाचिक कार्य कल किसी भी घर का ग्रहण बन सकता है, तब देखना कि तुम तब भी मूक दर्शक न बने रह जाओ! तब देखना कि तुम तब भी सोते न रह जाओ!!

और कभी नींद खुले और यह चीख़... तुम्हारे कानों मे पड़े, तो डरना मत, बल्कि ठंडे दिमाग से सोचना कि आखिर कौन है, असली "डायन" ???...!!!
.............................................................dimagless

Monday, July 16, 2007

अंग्रेज़ी सभ्यता रीति को दूर भगाने वाली

जन-जन को झकझोर ज़ोर से रोज़ जगाने वाली

स्वयं बनी मार्जनी स्वरूपा "सम्पादक की वाणी"

भारत और भारती की जाग्रत वाणी कल्याणी

अपनी श्वेत प्रभा से भाषा से नवराष्ट्र विधात्री

सम्पादन की शुचि रुचि से जन जन की प्राण प्रदात्री

मनुज मनुज को यह प्रदीप्त देवत्व प्रदान करेगी

जीवन में यज्ञीय-प्रतिष्टा प्रद सम्मान वरेगी

सम्पादक की वाणि! देवि! यह अभिनन्दन है मेरा

शाक्त शक्ति जाग्रत कर दो तम हर दो हँसे सवेरा

Friday, July 13, 2007

उसकी खामोशी जाने क्या कहती है..







वो जो खोई-खोई... चुप-चुप सी रहती है....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....



बन्द लबों में चुप सी उदासी...



झुकी नज़रों में भरी नमी सी...



फ़िर भी मुस्कान बिखेरा करती है....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है...






हर पल मशरूफ़ वो कुछ उलझी सी....



हाथों से झुकी लटों को पीछे करती....



जाने क्या सोचा करती है....



उसकी जुल्फ़ें भी परेशान रहा करती हैं.....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....






जाने कहां देखती रहती है गुम सी....



खुले आंचल में लगती बड़ी भली सी...



खुद से भी अनजानी लगती....



उसकी उंगलियां दुपट्टे से खेला करती है...



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है......






शांत, गहरी, साफ़ आंखें..बिल्कुल आईने सी....



देखती है मुझको...लगती है मुझमें शामिल सी...



पर फ़िर भी एक दूरी सी रहती....



उसकी निगाहें भी सवाल किया करती हैं...



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....

अबोध मन की पुकार

अबोध मन की पुकार


जब छोटा था। तब जो मन में भाव आते थे। उसे लिख देता था। सालों बाद जब वह रचनाएं हाथ लगीं। तो आपके साथ बांटने से खुद को रोक नहीं सका।



जीवन का कुछ पता नहीं


कायरों के शहर में
बेनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
नामवालों के शहर में
अनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां, लिए जा रही हैं चला जा रहा हूं।
रोने का तो बहुत जी चाहता है,
इन्‍हीं बातों पे हंसा चला जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां जिए जा रही है चला जा रहा हूं

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे

कुछ और मौन

जाडे की रात
ठंडी हवाएं और लिपटी चादर
अलाव जल रहा है।
चारो तरफ सब बैठे हैं।
बोलते हैं, हंसते हैं।
लडते हैं, झगडते हैं।
पर मैं मौन
शांत ही रहता हूं,
अचानक कुछ घटता है।
एक शांति उतर आती है।
चारो ओर शोर में
मौन का अनुभव
बस मौन ही मौन
कुछ और मौन

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे के आसपास



एक बुढिया जो

एक बुढिया जो
आती है दुकान पे
भाव पूछती है
सोचती है कुछ।
पांव कह रहे थे चलो
वह चलकर रूक जाती है
बोझा उतारकर माथा से
बैठ जाती है।

फ‍िर जैसे
बच्‍चों को दुलारती हो वैसे
आलूओं को पुचकारती है
कितना प्रेम बरसता है
फ‍िर, फ‍िर कुछ भी तो नहीं

कुछ रेखाएं उभरती हैं,
माथे पे उसके
उनको पढने का प्रयास करता हूं
पर वह पैसे चुकाकर
चली जाती है
मन कितना अनु‍त्‍तरित रह जाता है।

दिनांक 13 अप्रैल 1996, सोमवार, दोपहर


आज तीन ही। बाकी किस्‍तों में यहीं आती रहेंगी।

Wednesday, July 11, 2007

आपकी उंगली पकड कर मैंने चलना सीखा

आपकी उंगली पकड कर मैने चलना सीखा


चंद शब्‍द कविता से पहले। जिंदगी मेरी है। कहानी मेरी है। किसी बेहद अजीज ने लिखा है। टुकडो में ही उसे अपनी कहानी सुनाई थी। सोचा न था कविता बन जायेगी। सच्‍ची कहानी की सुंदर कविता। शुक्रिया दोस्‍त।




आपकी उंगली पकड़ मैने चलना सीखा॥
आपके साये में ही बीता बचपन मेरा..
आपसे ही पाये सवालों के जवाब॥



आप ही सबसे पहले प्यारे दोस्त बने..
हमारे बीच दो पीढीयों का फ़ासला था...
फ़िर भी मैं सबसे ज्यादा आपसे ही जुड़ा..
मेरी शैतानियों का सरमाया आप ही थे...
आप ही मेरे इकलौते राज़दार थे...


याद है वो दिन मुझे मै १७ बरस का था...
और पहली बार मैने 'उसे' देखा..
मैं कितना प्रफुल्लित.. रोमांचित..
आया और आपसे सब कह दिया...
आपने सुना पर कहा कुछ नहीं...


शाम को जब लौटा...
आपके हाथों में 'उसका' पता था...
मेरे अनगढ पहले प्यार का अंकुर...
आपकी हथेली पर ही पनपा था...
मेरे दिन ख्वाबों से बीतने लगे...
रातें चांदी की होने लगी...


'उसको' देखता और सोचता रहता था...
मेरा मूक प्यार..'उसने' भी कभी कुछ नहीं कहा..
मैने भी कभी कुछ पूछा नहीं..
मेरे अल्हड़, चंचल ने सीख लिया था..
इंतजार करना और परेशान रहना...
एक अनजाने के लिये...


ऐसे ही दिन बीतने लगे...
ख्वाबों के पलक-पावड़ों पर...
इस बीच एक दिन मैंने इजहार भी कर दिया...
पर कोई जवाब आया नहीं..


फ़िर एक दिन मैंने वो शहर छोड़ दिया...
तरक्की की दौड़ में शामिल होने...
इस 'बड़े व्यस्त शहर' में आ गया..
पर फ़िर भी बंधा रहा 'उसके' मोह से..


फ़िर एक दिन खबर मिली की॥
मेरी 'वो' पराई हो गयी....
उसकी यादें मुझे रूला गयी...
मेरे तकिये भिंगो गयी...
मैं खुद को ही खोने लगा...



पर एक दिन आप भी चले गये॥
कभी ना लौटने के लिये...
पर अजीब विडंबना मेरे पत्थर दिल की...
इस बार पलकें तक नहीं भींगी...
शायद अब कुछ खोना नहीं चाहता था..
यादें भी नहीं॥आंसू भी नहीं॥



जिंदगी फ़िर यूं ही चलने लगी..
कुछ खुशियां फ़िर मिली...
जाते हुये मुझे और तन्हा कर गयीं...


अब भी दौड़ रहा हूं॥ जिंदगी के साथ॥

जिंदगी की तलाश में...
अब भी तन्हा हूं.. भीड़ के साथ में...
पर अब दर्द कम होने लगा है...



शायद एक दिन ये कमी पूरी हो जायेगी॥
मैं भी बहुत व्यस्त और सफ़ल हो जाउंगा..
और एक दिन ये सब भूल जाउंगा...
पर आपसे ना कभी मिलूंगा..
ना कभी आपको भूल पाउंगा..

Saturday, July 7, 2007

यूं ही सही.....







एक पल को ही सही पर.... कोई तो कहने को अपना हो...



भूला सा ही सही पर.... होठों पर कोई तो नगमा हो...



झूठा ही सही पर... आंखों में कोई तो सपना हो...



शिकवा ही सही पर... तुम्हें मुझसे कुछ तो कहना हो...



छोटा ही सही पर... जीने को कोई तो लम्हा हो....



दर्द ही सही पर.... दिल को कुछ तो सहना हो...



गम ही सही पर.... मुझे तुमसे कुछ तो मिलना हो...



अंधेरा सा ही सही पर.... घर में मेरा भी तो एक कोना हो...



अनजाना ही सही पर.... मेरा तुमसे कोई तो रिश्ता हो...



Friday, July 6, 2007

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए

निदा फाजली

निदा फाजली साहब के क्‍या कहने। उनके बारे में कुछ कहना सूरज को चिराग द‍िखाने के बराबर है। उर्दू शायरी के इस शायर को जिंदगी की कहानी कहने में महारत हासिल है । पेश है उनकी चंद रचनाएं ।


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में ब‍िखरी हुई चीजों को सजाया जाए।

जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चिरागों को बुझने से बचाया जाए।

बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए।

खुदकुशी करने की हिम्‍मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन इसी तरह औरों को सताया जाए।

घर से बहुत दूर है मस्‍जीद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्‍चे को हंसाया जाए ।


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे।

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोडी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे।

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे ।

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे।



घूप में निकलों घटाओं में नहाकर देखो


घूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
जिंदगी क्‍या है किताबों को हटा कर देखो।

वो सितारा है चमकने दो यूं ही आंखों में
क्‍या जरूरी है उसे जिस्‍म बना कर देखो।

पत्‍थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं
अपने घरों की दर ओ दिवार सजा कर देखो।

फासला नजरों का धोखा हो सकता है
वो मिले या ना मिले हाथ बढा कर देखो।



दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट़टी खो जाए तो सोना है।

अच्‍छा सा कोई मौसम तन्‍हा सा कोई आलम
हर वक्‍त का रोना तो बेकार का रोना है।

बरसात का बादल तो दीवाना है क्‍या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है।

गम हो कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फ‍िर रस्‍ता ही रस्‍ता है हंसना है न रोना है।


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा
मैं ही कश्‍ती हूं मुझमें ही संमदर है मेरा।

किससे पूछूं कि कहां गुम हूं बरसो से
हर जगह ढूंढता फ‍िरता है मुझे घर मेरा।

एक से हो गए हैं मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आंखों से कहीं खो गया मंजर मेरा।

मुद़दतें बीत गई ख्‍वाब सुहाना देखे
जागता रहा हर नींद में बिस्‍तर मेरा।

आईना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ्‍ा में महफूज है पत्‍थर मेरा।


मां


बेसन की सोंधी रोटी पर
खट़टी चटनी जैसी मां।
याद आती है चौका बासन
चिमटा फूंकनी जैसी मां ।

बांस की खुर्री खाट के उपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी मां।

चिडियो के चहकार में गुंजे
राधा मोहन अली अली
मुर्गे की आवाज से खुलती
घर की कुडी जैसी मां।

बिवी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्‍सी के उपर
चलती नटनी जैसी मां।

बांट के अपना चेहरा, माथा
आंखें जाने कहां गई
फटे पुराने इक एल्‍बम में
चंचल लडकी जैसी मां।


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है
दो आंखो में एक से हंसना एक से रोना है।

जो जी चाहे वो मिल जाए कब ऐसा होता है
हर जीवन, जीवन जीने का समझौता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है।

रात अंधेरी भोर सुहानी यही जमाना है
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है
आती सांस को पाना जाती सांस को खोना है।

Tuesday, July 3, 2007

मैं बस एक गुजरता लम्हा हूं


"क्यूं इतने सवाल करते हो मुझसे... इतने प्रश्नचिन्ह किसलिये????..... तुम भी जानते हो और मैं भी... कोई रिश्ता नहीं तुम्हारे मेरे बीच.... ना हम साथी ना ही हमसफ़र...ये बस एक राह्गुजर जहां हम मिले अचानक यूं ही.... मैं ना तुम्हारे कल में शामिल थी..... ना आने वाला कल मुझसे जुड़ा है..... मैं बस अभी हूं... यहीं केवल इस पल में शामिल हूं.... मैं खुशी हूं चंद लम्हे लाई हूं... प्यार के... मुस्कान के.. साथ हूं कुछ दूर का बस.... आई हूं अपनी मुस्कान तुम्हारे होठों पर सजाने... कुछ लम्हों के फ़ूल जिंदगी में खिलाने... देखो मेरी निगाहों से दुनिया को... सजने दो पलकों में फ़िर सपने नये.... तुम किस कशमकश में हो... कैसी उलझन... ये कैसा अविश्वास मेरे होने पर.... मैं एक गुजरता लम्हा हूं...गुजर जाउंगी बहते वक्त के साथ... एक लहर हूं आई हूं और लौट भी जाउंगी... मन की सूखी मिट्टी को भिगोने दो मुझे.... होने दो गीला-गीला मन.....गुनगुना लो इस भीगे नग्मे को .. अपने सूखे होठों पर..कर लो साथ जिंदगी के लम्हों में.... शामिल नहीं हो सकती तुममें... ना होना चाहती हूं... मैं बस एक एहसास हूं .... मह्सूस करो.... क्यूं बांध रखा है खुद को... कैसा डर खुशी से, रंगों से.... मैं आई हूं रंग भरने... जिंदगी की तस्वीर में... कल जब चली जाउंगी... दे जाउंगी ये तस्वीरें .. कुछ यादें.. गीला मन.... खिली मुस्कान.. चंद गीत....ना कभी थी ना कभी रहूंगी.... चाहा कुछ नहीं.... बस लौटाने आई हूं तुम्हारे ख्वाब...विश्वास...सरगम...तुम्हारी जिंदगी....अब और सवाल मत करो... यकीन करो इस गुजरते लम्हे का.... खोने दो मुझे .. तुम खुद को पा लो... देखो बीतता जाता है वक्त.... और गुजरना है मुझे भी...."

Saturday, June 30, 2007

तुम्हारा आईना हूं मैं




तुम्हारा आईना हूं मैं...
मैं तुम्हें दिखाता हूं...
तुम्हारी असल पह्चान...
तुम्हारी शख्सियत....
केवल तुम्हारा चेहरा ही नहीं..
देख सकता हूं मैं...
तुम्हारी आंखों... और....
तुम्हारे दिल में छुपा सच...
पर तुम्हारी नज़रें....
कभी अपनी आंखों में...
देखती ही नहीं....
और ना अपने दिल की..
तरफ़ देखते हो तुम....


हर सुबह तुम मुझमें...
निहारते हो खुद को....
और देख कर मुझ को..
मुस्कुराते हो तुम....
और खुश होकर...
निकलते हो घर से...
अपने चेहरे पर....
कई चेहरे लगाये......
शाम को लौटते हो...
चेहरे उतारते हो...
और फ़िर एक बार...
देखते हो मुझे....
पर झुकी नज़रों से...
और हट जाते हो...
असल चेहरा...
तुम्हें पसंद नहीं आता..


सच कहता हूं...
जिस दिन....
तुम्हारी नज़रों ने....
मेरी आंखों में...
देख लिया...
उस दिन से मुझे...
देखना छोड़ दोगे...
और कहीं भूले से...
जो उतरे मेरे दिल में...
सच कहता हूं....
मुझे तोड़ ही दोगे....

Friday, June 29, 2007

हर एक बात पे कहते हो

हर एक बात पे कहते हो

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?




ग़ुफ़्तगू = Conversationअंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू = Style of Conversationपैराहन = Shirt, Robe, Clotheहाजत-ए-रफ़ू = Need of mending (हाजत = Need)गुफ़्तार = Conversationताक़त-ए-गुफ़्तार = Strength for Conversation



दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है



दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?


हमको उनसे वफ़ा की है उम्‍मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।


हम हैं मुश्ताक़ और वो बेजार
या इलाही ये माजरा क्या है।


जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फ‍िर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है।


जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है।


–मुश्ताक़ = Eager, Ardentबेज़ार = Angry, Disgusted


आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक


आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।


आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।


हम ने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक।


ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।


सब्र-तलब = Desiring/Needing Patienceतग़ाफुल = Ignore/Neglectजुज़ = Except/Other thanमर्ग = Deathशमा = Lamp/Candleसहर = Dawn/Morning


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।


मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।


ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।


गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।



बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = Children’s Playgroundशब-ओ-रोज़ = Night and Dayनिहाँ = निहान = Hidden, Buried, Latentजबीं = जबीन = Brow, Foreheadकुफ़्र = Infidelity, Profanity, Impietyकलीसा = Churchजुम्बिश = Movement, Vibrationसागर = Wine Goblet, Ocean, Wine-Glass, Wine-Cupमीना = Wine Decanter, Container




ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता


ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना
कि खुशी से मर न जाते ग़र ऐतबार होता।


ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई होता कोई ग़म-गुसार होता


कहूँ किससे मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।


कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।



विसाल = Unionनासेह = Councellorचारासाज = Healerग़म-गुसार = Sympathizer

Monday, June 25, 2007

मॉं कहा करती थी.......!!!





मॉं, याद है मुझे, तेरी वो बातें

वो किस्से, वो यादें, वो तारों भरी रातें

कलेजे से साटे तू ही कहा करती थी मॉं, कि-


दूर आकश में परियां रहा करती हैं

जो मन उनको भाये, उससे मिला करती हैं !


आती हैं चुपके से, करती हैं बातें

फिर ढेर सारे सपनें, फिर ढेर सी सौगातें....


मॉं! याद है मुझे-

चॉंद को दिखाकर तू हि तो समझाती थी

सुंदर-सुंदर परियों की देश जिसे बताती थी



मैं जब पूछता था अबोध सा-

"मॉं ! क्या मुझे भी कोई परी मिलेगी?"



इस बात पे तू खुब हंसा करती थी

झट से मेरे गालों को, तू चुम लिया करती थी

फिर कहती थी बडे दुलार से-

मिलेगी कोई परी तेरे इस लाल से.......



हाथों मे उसके भी, जादू कि छ्डी होगी

चमकते लंबे बाल, चांद की वह मूरत होगी



सुनहले चांदी के होंगे उसके पंख

दूर देश लेजायेगी, मुझे भी अपने संग !!



तेरी इस बात पर, मैं डर जाया करता था, मॉं

तुझे खोने की भय से, मैं रो देता था मॉं



फिर पोंछ के मेरे आंसू, तू निंदिया को बुलाती थी...

माथे पे देके थपकी, आंचल मे छुपाती थी..



याद है, मुझे सब कुछ याद है मॉं

आंचल मे लिपटे तेरी हर एक बातें-



वो परियों के किस्से, वो सपनों भरी रातें !!

सब कुछ याद है मॉं, सब कुछ........



वक्त कि तेज आंधी का एक धूल भी नहीं पडा

बस वो गोद तेरी नहीं है, अकेला हूं मैं



पर हां मॉं,

तेरी वो बात बिल्कूल सच निकली-

सुंदर सी एक परी, मुझे भी थी मिली



वैसी हीं बातें, वही सौगातें

वही जदू की छ्डी, वही चांदनी लडी



खुश था मॉं, मैं अपने इस हाल से-

जब मिली थी वो परी तेरे इस लाल से.....



पर शायद मैं भूल गया था,

तेरी एक बात-

उड जाती हैं परियां, छोड के एक दिन साथ

हां मॉं, मैं सचमुच भूल गया था, कि-



सपनें भी कहीं सच हुआ करते हैं,

परियों के तो पंख भी हुआ करते हैं......

परियों के तो पंख भी हुआ करते हैं....


................................dimagless

Sunday, June 17, 2007


श्री जयशंकर प्रसाद जी की अन्यतम कृति ' कामायनी ' हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का बेजोड़ महाकाव्य है।इसे आधुनिक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ और रामचरितमानस के बाद दूसरा महान काव्य कहा गया है।इसी महाकाव्य कामायनी का लज्जा सर्ग प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस उर्दू बहुल साहित्य समाज में हमारे हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का स्मरण दिलाने का बस एक छोटा सा प्रयास है, यदि लज्जा पूरी पढें तो मैं ये समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ, आशा है मैं अपने प्रयास में सफल होऊँगा । और हाँ लिखने में हुई किसी प्रकार की अशुद्धि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ

लज्जा
कोमल किसलय के अन्चल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती सी;
गोधूलि के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी ।

मन्जुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों;
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों ।

वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए;
माधव ले सरस कुतूहल का आँखों मे पानी भरे हुए ।

नीरव निशीथ में लतिका सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये सी आलिंगन का जादू पढ़ती!

किन इन्द्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग कण राग भरे ;
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?

पुलकित कदंब की माला सी पहना देती हो अन्तर में ;
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।

वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ;
यह अंचल कितना हलका सा कितने सौरभ से सना हुआ ।

सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ ;
मैं सिमट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूं ।

स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना ;
प्रत्य्क्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना ।

मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा ;
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता सा डोल रहा ।

अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को ;
जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दूरागत को ।

किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर से धँस कर मैं आनन्द शिखर के प्रति बढ़ती ।

छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ;
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।

संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ;
भाषा बन भौंहों की काली रेखा भ्रम में पड़ी रही ।

तुम कौन ? हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रहीं ;
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन वन से हो बीन रहीं !"

संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ;
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।

"इतना न चमत्कृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो ;
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो ।

अंबर-चुम्बी हिम श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये ;
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये ।

मंगल कुंकुम कि श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली ;
भोला सुहाग इठलाता सा हो ऐसी जिसमें हरियाली ।

हो नयनों का कल्याण बना आनंद सुमन सा विकसा हो ;
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक सा हो ।

जो गूँज उठे फिर नस नस मे मूर्च्छना समान मचलता सा ;
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा ।

नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो ;
वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंढक पाती हो ।

हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ;
जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ।

हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ;
उस नवल चन्द्रिका सा बिछले जो मानस की लहरों पर से ।

फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिनके अभिनन्दन में ;
मकरन्द मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में ।

कोमल किसलय मर्मर रव से जिसका जय घोष सुनाते हों ;
जिसमें दुख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों ।

उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ;
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती ;
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती।

मैं देव सृ्ष्टि की रति रानी निज पंचवाण से वंचित हो ;
बन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता सी ;
लीला विलास की खेद भरी अवसाद मयी श्रम दलिता सी ।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ ;
मतवाली सुंदरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ ।

लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ;
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बन कर जगती ।

चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली ;
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।

"हाँ ठीक,परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ;
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ;
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सब से हारी हूँ ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है !
घनश्याम खंड सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है !

सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महा तरु छाया में ;
चुपचाप पड़ी रहने कीक्यों ममता जगती है माया में ?

छायापथ में तारक द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ;
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ;
अस्फुट रेखा की सीमा में; आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती ;
पगली सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण मे कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है ।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु जल से अपने ;
तुम दान कर चुकीं पहले ही जीवन के सोने से सपने ।

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में ;
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय,दानवों की हारों का होता युद्ध रहा ;
संघर्ष सदा उर अंतर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ लिखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा ।"

Saturday, June 9, 2007

वो जब थी.............!!!



वो जब थी , तो कुछ यूं भी किया करती थी .........................
हाथॉ में लिख के मेरा नाम
अपनी होठों से चुमा करती थी
फिर दुप्पट्टे के उस किनारे को
ऊंगलियों मे मोडा करती थी
शर्माती थी, कुछ घबडाती थी
फिर पलके उठाये मुझको, एक टक निहारती थी
ओ जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी ....................

उसके लम्बे खुले बाल कमर तक लहराते थें
हवा के झोंको से उड कर
चेहरे को ढंक जाते थें
फिर सम्भालती अपनी जुल्फों को
कोइ गीत गुनगुनाती थी
कभी रूठ्ती , कभी जलाती थी
कभी कान्धे से टिक के मेरे ,सपने कई बनाती थी
वो जब थी , तो कुछ यूं भी किया करती थी ............................

बारिश की लेके बूंदें, वो खुब इठ्लाती थी
पास जो उसके जाऊं, दूर निकल जाती थी !
चलना है साथ तुम्हारे, बस यही मुझे समझाती थी
कभी चुप सी थी, कभी गुम सी थी
कभी आंखों के छलकते आंसू, यूं ही पिया करती थी,
वो जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी......................

अब नही है वो! न आयेगी कभी...
अब न कोई लम्हा बनायेगी कभी
आज याद आ रहा है, रूठ के उसका जाना
लाख मनाने पर भी, वापस नही आना
अब मैं समझा हूं वो क्यों,
कुछ यूं भी जिया करती थी,
वो जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी......
...........-
------------------dimagless



Friday, June 8, 2007

...हम भी थोडा ग़ुलज़ार करेँ..........



इस बाग को,हम भी थोडा ग़ुलज़ार करॅ
दिल मे जो अरमाँ हैँ, उन पर कुछ ऐतबार करेँ.....
माना कि हम मिल न सकेँगे कभी
तो आओ कुछ पल यहीं विश्राम करेँ,
और चिराग जला कर,थोडा इंतज़ार करेँ,
दिल के कुछ सौगात इस गुल पे निसार करेँ!

याद है मुझे अब भी, उनसे पहली बार मिलना
भूला नहीं हूँ आज भी, सपनों का बिखरना
पर संभाले रहा खुद को बस इस आस में
रात के बाद सुबह है, बस यही इंतज़ार में!

तो आओ, फिर एक भोर के लिये
इस रात का भी सम्मान करें,
आओ इस बाग को हम भी थोडा ग़ुलज़ार करें
दिल मे जो अरमाँ हैँ, उन पर कुछ ऐतबार करें................

--------------------dimagless

Thursday, June 7, 2007

मॉफ कीजिएगा मगर मैं चुप नहीं रहूंगा


छोटा मुंह और बडी बात

हां कुछ ऐसा ही माना जाएगा अगर मैं कुछ कहूंगा। मगर मुझे परवाह नहीं। कोई माने या न माने। कहूंगा वही जो कहना है। और कहना यही है कि आज हिंदी के तथाकथित बड़े, पहुंचे हुए और सर्वज्ञ किस्म के लोग जो लिख रहे हैं वह कूडे दान के अलावा कहीं और स्थान पाने योग्य नहीं है। जी हां मैं बात कर रहा हूं उन संपादकों, पत्रकारों और साहित्यकारों की जो नौकरी बचाने या पेट भरने की चाह में कुछ भी अनाप शनाप लिखते चले जा रहे हैं। हां, बगैर किसी शक, शुबहा के इन तथाकथित,स्वनामधन्य और अनामधन्य महोदयों के प्रगतिशील लेखन को मैं खारिज कर रहा हूं। क्योंकि जिस पूर्वाग्रह के साथ लिखा जा रहा है वह बहुत सही नहीं है। कम से कम मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि यह बिलकुल वैसे ही है जैसे किसी बकरे को हलाल करने से पहले खूब चारा खिलाया जा रहा हो. जो लोग केवल बकरा और उसे चारा खिलाने को देख कर मुग्ध हुए जा रहे हैं वह दरअसल पर्दे के पीछे की हकिकत से वाकिफ ही नहीं है. उन्हें मालूम ही नहीं की यह बकरा जल्द ही मार दिया जाएगा. यही वजह है कि वह इसे अद्वितीय घटना मानकर अचंभित हुए जा रहे हैं। उन्हें पता ही नहीं की अगर बकरे को मारे जाने की योजना न होती हो उसे चारा भी नहीं खिलाया जाता.मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मैं आपके विरोध में खडा नहीं हूं। दरअसल मैं एक दूसरी हवा चलाने की जुगत भिड़ा रहा हूं जो इस ज़हरीली हवा से हमें निजात दिला सके ।बहरहाल खेल अब आमने सामने का सा दिखने लगा है। तो आईए जरा जोर आजमाईश हो जाए ।

Friday, May 18, 2007

मै यहीं हूं सदा से


मै यहीं हूं सदा से

मैं यहीं हूं सदा से। कहीं और जाने का सवाल भी नहीं है। किसी के लिये मैं एक सराय हूं। किसी के लिये दो वक्त कि रोटी जुटाने की जगह तो किसी के लिये पूजा और इबादत स्थल। कभी रस्ता तो कभी मंजिल। ना मालूम मेरे कितने रूप हैं। मेरे दामन में हजारों फूल खिले कई जख्म भी मिले। मगर मैं रहा। वक्त के हर पल का हिसाब दर्ज करता रहा। आज सदियों बाद कोई इन्हीं भुले बिसरे पन्नों को संजोने कि कोशिश कर रहा है। फ़र्क केवल इतना है कि वहां गुलज़ारबाग एक जगह का नाम था। यहां विचारों के इसी सैरगाह का।

शुक्रिया।