Sunday, September 23, 2007

आपके साथ

मैं आप के साथ रहना चाहती हूँ
मैं आप के साथ जीना चाहती हूँ
हाथों मे हाथ डाल खिलखिलाना चाहती हूँ
कंधे पर सिर रख रोना चाहती हूँ
मैं आपको पाना चाहती हूँ
मैं आपके साथ जीना चाहती हूँ

बिन आपके नही जी पाऊँगी
निर्जीव हो जाउंगी मैं
कैसे रह पाऊँगी मैं
भला प्राण के भी कोई साँस ले पता है
बिना आत्मा के शारीर रह पाता है
तो फिर कैसे सोच लिया तुमने
रह लुंगी मैं तुम बिन
मेरा प्यार हो तुम
रक्त संचार हो तुम
मेरी हिम्मत हो तुम
मेरा हाथ पकड़ आगे बढ़ने कि सीख देते हो तुम
मेरा दामन थाम चलते रहना तुम
जब तक साँस रहेगी मैं आप के साथ रहूंगी ।

दल-दल

ऐसे दलदल मे मे फसती जा रही हूँ
जिसमे ना डूब रही हूँ
और ना ही निकल पा रही हूँ।
असहज सी होती जा रही है ज़िन्दगी
देखती हूँ आकाश कि ओर
शायद कोई आशा कि किरण दिख जाए
पकड़ ले कोई हाथ मेरा
जीवन को आधार मिल जाए।
कही भी जाऊ ,कुछ भी करूं
तुम सामने से ओझल होते नही
कैसे अपने आप को समझाऊ
वो मेरा है ही नही
शायद मैं ही नही
तुम्हारे लायक
और क्या कहूँ
भूल नही पाती हूँ तुम्हे
एक छड के लिए भी
वो पल जो हमने साथ बिताये
वो खट्टी मीठी यादें
क्या इसी कशमकश मे जीते रहेंगे हम
जीवन यूं ही दल- दल मे फंसी रह जाएगी।

ज़िन्दगी

तुम कितने अजनबी थे
जब आए थे हमारे ज़िन्दगी मे
विश्वास नही होता
आज ज़िन्दगी बन गये हो तुम
हमारे जीवन मे रौशनी फैलाये हो
हमे खुशियों के सागर मे डुबोया है
दिल का कोना-कोना झिलमिलाया है
मेरे तन-मन को मह्काया है
हर ख्वाब दिखाया
दिल चौक उठता है जब
अहसास होता है
तुम हमारे नही हो
सारा विश्वास चकनाचूर हो जता है
आस्था चरमरा जाती है
तुम्हारे बिना ज़िन्दगी
kaap जाती हूँ
प्रशन करती हूँ ?
क्या बिच मझधार मे छोड जाओगे
क्या अंत तक साथ न दे पाओगे
या कश्ती को भवर मे डाल जाओगे
अब देखती हूँ तुम्हे, तो लगता है
तुम थे ही नही हमारे
बस कुछ समय के लिए
ख्वाब बन, आ गाए थे हमारे पास
वो पल ही अब हमारी धरोहर है
उन्ही को संजोए
चलती रहेगी जिन्दगी हमारी।

अशांत मन

जिंदगी एक पहेली है
दुःख मेरी सहेली है
रह -रह के होता विच्लांत है
न जाने मन क्यों अशांत है

तन्हाईओ के तारो मे झनझनाहट है
मन के कोने मे एक आहट है
इस मोड पर नही किसी का सहारा
मझधार तो है पर नही किनारा
रह-रह के होता आक्रांत है
न जाने मन क्यों अशांत है

हर वक़्त नए मोड कि तलाश है
दूर धरती मुझसे दूर आकाश है
चारो तरफ फैला दुःख और नाश है
दिल मे जल रही फिर भी एक आस है
परेशानियो से मन विच्लांत है
न जाने मन क्यों अशांत है।

Thursday, September 20, 2007

क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर,तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था?क्षण भर को क्यों प्यार किया था?‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’और न कुछ मैं कहने पाया -मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?वह क्षण अमर हुआ जीवन में,आज राग जो उठता मन में -यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था!क्षण भर को क्यों प्यार किया था?
-हरिवंश राय बच्चन