Wednesday, April 14, 2010

पुराने पेड़ नहीं बचे तो नहीं बचेंगे देशी पंछी

मेरठ में पुराने दररख्तों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है, जिससे कई देसी प्रजातियों को खतरा उत्पन्न हो गया है।





कठफोड़वा की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। इस चिडिय़ा को खाने और घर बनाने के लिए कम से कम 50 से 70 साल पुराने और मोटे पेड़ चाहिए। जिसके तने में वह 60 से 70 सेमी गहरे गोल छेद बना सके। मेरठ में एेसे दरख्तों की संख्या बहुत कम हो गई है। नतीजतन कठफोड़वा के सामने रहने-खाने का संकट खड़ा होता जा रहा है। एनसीआर समेत आसपास के इलाकों का हाल भी बहुत जुदा नहीं है। काटे जा रहे पुराने दरख्तों की वजह से कठफोड़वा की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। कुछ यही हाल लाल, हरे,भूरे और सफेद धब्बों वाली बारवेट प्रजातियों का है।
कभी पूरे एनसीआर के इलाकों में हजारों की तादाद में पाए जाने वाली इन चिडिय़ों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। सुंदर चोच वाली हार्नबिल चिडिय़ों की आबादी भी इसी वजह घट रही है। दरअसल रेड, ग्रीन और ब्राउन हेडेड बारवेट समेत ग्रे और अन्य हार्नबिल को भी पुराने दरख्तों में बने बड़े खोल चाहिए, जो धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। पुराने दरख्तों के काटे जाने का सीधा असर इन प्रजातियों की प्रजनन प्रक्रिया पर पड़ रहा है। दरअसल पेड़ खत्म हो जाने से ब्रीडिंग धीमी हो गई है। वन्य जीव वैज्ञानिक रजत भार्गव के मुताबिक, वेस्ट यूपी में हालात तेजी से खराब होते जा रहे हैं। उनकी मानें तो मेरठ समेत एनसीआर इलाके में दरख्तों की संख्या कम होती जा रही है। उन्होंने साफ किया अगर पुराने पेड़ नहीं बचाए गए तो इन पंछियों को बचाना बेहद मुश्किल होगा।

देसी चिडिय़ों का ब्रीडिंग मौसम
मार्च - अप्रैल - पाराकीटस और हार्नबिल
जून-जुलाई - मैगपाई रॉबीन, वुडपैकर और बारवेट

इन पंछियों के प्रजनन पर पड़ रहा असर
पैराकीट
हॉर्नबिल
वुडपैकर
बारवेट

पंछियों को चाहिए यह पेड़
जामुन, सेमल, नीम, पीपल, गुलर, पीलखन

पुराने पेड़ क्यों चाहिए
पुराने पेड़ इन पंछियों को खाना उपल्बध कराते हैं। साथ ही उसमें बनाए जाने वाले खोटरों में रहने की सुविधा भी मिलती है। खास बात यह है कि ब्रिडिंग के लिए जरूरी है। साथ ही पंछियों के छोटे बच्चों के लिए यह खोटर खाना और सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वाटरलविंग बर्डस और कठफोड़वा जैसी मजबूत चोंच वाली चिडिय़ां इन फटासों में मौजूद कीड़ों को खूब मजे से खाती हैं। तनों में करीब 60 से 70 सेमी गहरे गोल छिद्र बनाती हैं। जबकी बाद में हार्नबिल जैसे पंछी छह माह में एक मीटर तक गहरा बना देते हैं।

पॉपुलर, यूकेलिप्टस और एलेस्टोनिया
एनसीआर समेत वेस्ट यूपी के शहरों में पॉपुलर, यूकेलिप्टस और एलेस्टोनिया के पेड़ों की संख्या बेहद ज्यादा है। पॉपुलर और यूकेलिप्टस के तने में फटास नहीं होती। चिकने तनों में कीड़े भी नहीं होते और तना खासा सख्त होता है। चिडिय़ों के इनके तनों में भोजन नहीं मिलता इसलिए इसमें खोटर नहीं बनाती, वहीं एलेस्टोनियों को डेवील ट्री या पार्किंग ट्री भी कहा जाता है। इस पेड़ पर पंछी घोसला लगाना तो दूर बैठना तक पसंद नहीं करते।

लाखों चिडिय़ां हो जाएंगी बेघर
कभी देहरादून जाने वाली सड़क के किनारे पुराने दरख्त थे। जहां चिडिय़ों की बड़ी आबादी थी। वक्त के साथ सारे पेड़ विकास की भंेट चढ़ गए। चिडिय़ों की आबादी भी इलाके से गायब हो गई। अब एक बार फिर यही कहानी दोहराई जाने वाली है। गंग नगर के किनारे लगाए गए पेड़ों को काटा जाना तय हो चुका है। एक्सप्रेस-वे को आठ लेन से बनाने के लिए करीब चालीस हजार पेड़ काटे जाने हैं। जिसमें बड़ी संख्या पुराने दरख्तों की हैं, जिससे एक बार फिर चिडिय़ों की बड़ी आबादी को खतरा पैदा हो गया है। बताते चलें कि इस पूरे रास्ते पर पेड़ों की कटान शुरू भी हो गई है।

Sunday, April 4, 2010

कभी जंग ए आजादी देखी थी मैंने, आज हमवतनों ने आग लगा दिया



- मैं बूढ़ा नीम का पेड़ हूं

मॉल रोड पर करीब दो सौ साल पुराने पेड़ में किसी ने आग लगा दी। शनिवार दोपहर बाद पेड़ गिर चुका था। वेस्ट यूपी मंे नीम के बूढ़े दरख्तों में जानबूझकर आग लगा दी जाती है।

मेरठ में कभी जंग-ए-आजादी देखी थी मैंने। मॉल रोड पर फिरंगियों का राज आज भी याद है मुझे। आजादी की पहली लड़ाई के दौरान वीर सपूतों ने मेरे सामने ही अंग्रेजों को खदेड़ा था। ब्रितानी राज के खात्मे के बाद हिन्दुस्तानी हुकूमत के परवान चढऩे का भी मैं गवाह रहा था। मगर मेरे हम वतनों ने ही शनिवार देर रात को मेरी खोखली हो चुकी जड़ों में आग लगा दी।
मैं नीम का पेड़ हूं। मेरी उम्र तुम्हारी तीन पुश्तों से भी ज्यादा है। बीते डेढ़ सौ सालों से मैं मॉल रोड के इतिहास के हर पल का गवाह रहा हूं। बीसी जोशी ऑफिसर्स इन्कलेव के रास्ते पर मेरी घनी छांव राहगीरों को तपती दुपहरी में सकून पहुंचाती थी। मेरठ कैंट में रहने वालों को जन्म से ही शुद्ध ऑक्सीजन दे रहा हूं। ना मालूम कितने पक्षियों को आसरा दिया मैंने। मगर ढलती उम्र में दीमक का शिकार होने के बाद मुझे ही आग लगा दी।
एक दिन पहले तक तोपखाने और लालकुर्ति समेत आस पास के इलाके से महिलाएं मेरी पूजा करने आती थी। मेरी छांव में कई देवताओं की मूर्तियों को विश्राम दिया। पर जब आग लगी तो फायर विभाग भी खानपूर्ति करने पहुंचा। शनिवार दोपहर तपती दुपहरी में मैं धीमे-धीमे जलता रहा। मगर कोई मुझे बचाने नहंी पहुंचा। आग की वजह से दोपहर में भरभराकर गिर गया। शाम तक भी धुंआ मेरे तनो को बुरी तरह जला चुका था।
बीते बीस घंटों से मॉल रोड पर मेरे कई हम उम्र साथी मुझे जलता देखने को मजबूर है। कुछ माह पहले मेरे ही सामने मॉल रोड पर करीब पांच मीटर दूर मुझसे भी दो गुणी उम्र के पेड़ को काट डाला गया था। तब मैं खामोश था। आज सब खामोश हैं।

शम्सुद्दीन का गुस्सा

शनिवार दोपहर को 76 साल के शमसुद्दीन जलते पेड़ को देखने पहुंचे थे। कभी शाहपीर गेट पर रहने वाले और फिलहाल तोपखाना निवासी शमसुद्दीन बेहद गुस्से में थे। दरअसल उनकी बचपन की यादें इस पेड़ से जुड़ी थी। उन्होंने बताया कि डोगरा लेन, सीडीओ ऑफिस के पीछे और साकेत स्थित नीम के पेड़ की तरह इसमें भी अंधविश्वास की वजह से आग लगाइ जा चुकी है। उन्होंने बताया कि अंधविश्वासी मानते हैं किसी पुराने नीम के पेड़ मंे आग लगा देने से संतानप्राप्ती होती है। इसी अंधविश्वास की वजह से करीब दो सौ साल पुराने नीम के पेड़ को जला दिया गया।