Thursday, August 30, 2007
मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
कहां ?
किस तरह ?
नहीं जानती
शायद तुम्हारे तख्यिल की चिंगारी बनकर
तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी
या शायद तुम्हारी कैनवस पर
रहस्यमय रेखा बनकर
खामोश तुम्हें देखती रहूंगी
या शायद सूरज की किरण बनकर
तुम्हारें रंग में घुलूंगी
या रंगों की बाहों में लिपटूंगी
पता नहीं
कैसे-कहां ?
पर तुम्हें जरूर मिलूंगी
या शायद एक चश्मा बनी हुई होउंगी
और जैसे झरना का पानी उड़ता है
मैं पानी की बूदें
तुम्हारे जिस्म पर मलूंगी
और ठंडक सी बनकर
तुम्हारे सीने के साथ लिपटूंगी....
मैं और कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूं
कि वक्त जो भी करेगा
यह जन्म मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म जब मिटता है
तब सब-कुछ खत्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायानाती कणों के होते है
मैं उन कणों को चुनूंगी
धागों को लपेटूंगी
और तुम्हें मैं तुम्हें फिर मिलूंगी....
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विदा
आज धरती से कौन विदा हुआ है
कि आसमान ने बाहें फैलाकर
धरती को गले से लगा लिया
त्रिपुरा ने हरी चादर तन कफन पर डाली
और सुबह की लालिमा ने
आंखों का पानी पोंछकर
धरती के कंधे पर हाथ टिकाया
कहा-
थोड़ी से महक विदा हुई है
पर दिल से न लगाना
कि आसमान ने तुम्हारी महक को
सीने में संभाल लिया है.....
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मैं तुम्हें फिर मिलूंगी 2002 में लिखी. इस कविता के साथ अमता ( read Amrita) के लेखन की उम्र पूरी हो गई.
कल तक 84 बरसों से खयालों के दरिया में अपनी कश्ती में पलंग पर बैठी कविता लिखती, कविता जीती वह जिंदगी के पांचों दरियाओं को पल पल पार करती रही.....
और आजकल वह आने पलंग पर सांसो के पानियों में डोल रही
सिर्फ डोल रही.....
-इमरोज
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2 comments:
बहुत अच्छी लगी, विषेशकर 'विदा'.
bahut khuub.....
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