Saturday, June 30, 2007

तुम्हारा आईना हूं मैं




तुम्हारा आईना हूं मैं...
मैं तुम्हें दिखाता हूं...
तुम्हारी असल पह्चान...
तुम्हारी शख्सियत....
केवल तुम्हारा चेहरा ही नहीं..
देख सकता हूं मैं...
तुम्हारी आंखों... और....
तुम्हारे दिल में छुपा सच...
पर तुम्हारी नज़रें....
कभी अपनी आंखों में...
देखती ही नहीं....
और ना अपने दिल की..
तरफ़ देखते हो तुम....


हर सुबह तुम मुझमें...
निहारते हो खुद को....
और देख कर मुझ को..
मुस्कुराते हो तुम....
और खुश होकर...
निकलते हो घर से...
अपने चेहरे पर....
कई चेहरे लगाये......
शाम को लौटते हो...
चेहरे उतारते हो...
और फ़िर एक बार...
देखते हो मुझे....
पर झुकी नज़रों से...
और हट जाते हो...
असल चेहरा...
तुम्हें पसंद नहीं आता..


सच कहता हूं...
जिस दिन....
तुम्हारी नज़रों ने....
मेरी आंखों में...
देख लिया...
उस दिन से मुझे...
देखना छोड़ दोगे...
और कहीं भूले से...
जो उतरे मेरे दिल में...
सच कहता हूं....
मुझे तोड़ ही दोगे....

Friday, June 29, 2007

हर एक बात पे कहते हो

हर एक बात पे कहते हो

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?




ग़ुफ़्तगू = Conversationअंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू = Style of Conversationपैराहन = Shirt, Robe, Clotheहाजत-ए-रफ़ू = Need of mending (हाजत = Need)गुफ़्तार = Conversationताक़त-ए-गुफ़्तार = Strength for Conversation



दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है



दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?


हमको उनसे वफ़ा की है उम्‍मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।


हम हैं मुश्ताक़ और वो बेजार
या इलाही ये माजरा क्या है।


जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फ‍िर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है।


जान तुम पर निसार करता हूं
मैं नहीं जानता दुआ क्या है।


–मुश्ताक़ = Eager, Ardentबेज़ार = Angry, Disgusted


आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक


आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।


आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक।


हम ने माना कि तग़ाफुल न करोगे लेकिन
खाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक।


ग़म-ए-हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक।


सब्र-तलब = Desiring/Needing Patienceतग़ाफुल = Ignore/Neglectजुज़ = Except/Other thanमर्ग = Deathशमा = Lamp/Candleसहर = Dawn/Morning


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।


होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।


मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।


ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।


गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।



बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = Children’s Playgroundशब-ओ-रोज़ = Night and Dayनिहाँ = निहान = Hidden, Buried, Latentजबीं = जबीन = Brow, Foreheadकुफ़्र = Infidelity, Profanity, Impietyकलीसा = Churchजुम्बिश = Movement, Vibrationसागर = Wine Goblet, Ocean, Wine-Glass, Wine-Cupमीना = Wine Decanter, Container




ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता


ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।


तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना
कि खुशी से मर न जाते ग़र ऐतबार होता।


ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई होता कोई ग़म-गुसार होता


कहूँ किससे मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है
क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।


कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।



विसाल = Unionनासेह = Councellorचारासाज = Healerग़म-गुसार = Sympathizer

Monday, June 25, 2007

मॉं कहा करती थी.......!!!





मॉं, याद है मुझे, तेरी वो बातें

वो किस्से, वो यादें, वो तारों भरी रातें

कलेजे से साटे तू ही कहा करती थी मॉं, कि-


दूर आकश में परियां रहा करती हैं

जो मन उनको भाये, उससे मिला करती हैं !


आती हैं चुपके से, करती हैं बातें

फिर ढेर सारे सपनें, फिर ढेर सी सौगातें....


मॉं! याद है मुझे-

चॉंद को दिखाकर तू हि तो समझाती थी

सुंदर-सुंदर परियों की देश जिसे बताती थी



मैं जब पूछता था अबोध सा-

"मॉं ! क्या मुझे भी कोई परी मिलेगी?"



इस बात पे तू खुब हंसा करती थी

झट से मेरे गालों को, तू चुम लिया करती थी

फिर कहती थी बडे दुलार से-

मिलेगी कोई परी तेरे इस लाल से.......



हाथों मे उसके भी, जादू कि छ्डी होगी

चमकते लंबे बाल, चांद की वह मूरत होगी



सुनहले चांदी के होंगे उसके पंख

दूर देश लेजायेगी, मुझे भी अपने संग !!



तेरी इस बात पर, मैं डर जाया करता था, मॉं

तुझे खोने की भय से, मैं रो देता था मॉं



फिर पोंछ के मेरे आंसू, तू निंदिया को बुलाती थी...

माथे पे देके थपकी, आंचल मे छुपाती थी..



याद है, मुझे सब कुछ याद है मॉं

आंचल मे लिपटे तेरी हर एक बातें-



वो परियों के किस्से, वो सपनों भरी रातें !!

सब कुछ याद है मॉं, सब कुछ........



वक्त कि तेज आंधी का एक धूल भी नहीं पडा

बस वो गोद तेरी नहीं है, अकेला हूं मैं



पर हां मॉं,

तेरी वो बात बिल्कूल सच निकली-

सुंदर सी एक परी, मुझे भी थी मिली



वैसी हीं बातें, वही सौगातें

वही जदू की छ्डी, वही चांदनी लडी



खुश था मॉं, मैं अपने इस हाल से-

जब मिली थी वो परी तेरे इस लाल से.....



पर शायद मैं भूल गया था,

तेरी एक बात-

उड जाती हैं परियां, छोड के एक दिन साथ

हां मॉं, मैं सचमुच भूल गया था, कि-



सपनें भी कहीं सच हुआ करते हैं,

परियों के तो पंख भी हुआ करते हैं......

परियों के तो पंख भी हुआ करते हैं....


................................dimagless

Sunday, June 17, 2007


श्री जयशंकर प्रसाद जी की अन्यतम कृति ' कामायनी ' हिन्दी साहित्य का ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य का बेजोड़ महाकाव्य है।इसे आधुनिक हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ और रामचरितमानस के बाद दूसरा महान काव्य कहा गया है।इसी महाकाव्य कामायनी का लज्जा सर्ग प्रस्तुत कर रहा हूँ , इस उर्दू बहुल साहित्य समाज में हमारे हिन्दी साहित्य के कवियों की रचनाओं का स्मरण दिलाने का बस एक छोटा सा प्रयास है, यदि लज्जा पूरी पढें तो मैं ये समझूँगा कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ, आशा है मैं अपने प्रयास में सफल होऊँगा । और हाँ लिखने में हुई किसी प्रकार की अशुद्धि के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ

लज्जा
कोमल किसलय के अन्चल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती सी;
गोधूलि के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती सी ।

मन्जुल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों;
सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों ।

वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए;
माधव ले सरस कुतूहल का आँखों मे पानी भरे हुए ।

नीरव निशीथ में लतिका सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती ?
कोमल बाहें फैलाये सी आलिंगन का जादू पढ़ती!

किन इन्द्रजाल के फूलों से लेकर सुहाग कण राग भरे ;
सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला जिससे मधु धार ढरे?

पुलकित कदंब की माला सी पहना देती हो अन्तर में ;
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में ।

वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ;
यह अंचल कितना हलका सा कितने सौरभ से सना हुआ ।

सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ ;
मैं सिमट रही सी अपने में परिहास गीत सुन पाती हूं ।

स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भर कर बाँकपना ;
प्रत्य्क्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना ।

मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा ;
अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता सा डोल रहा ।

अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को ;
जीवन भर के बल वैभव से सत्कृत करती दूरागत को ।

किरनों का रज्जु समेट लिया जिसका अवलंबन ले चढ़ती ;
रस के निर्झर से धँस कर मैं आनन्द शिखर के प्रति बढ़ती ।

छूने में हिचक, देखने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ;
कलरव परिहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।

संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजती खड़ी रही ;
भाषा बन भौंहों की काली रेखा भ्रम में पड़ी रही ।

तुम कौन ? हृदय की परवशता ? सारी स्वतंत्रता छीन रहीं ;
स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे जीवन वन से हो बीन रहीं !"

संध्या की लाली में हँसती, उसका ही आश्रय लेती सी ;
छाया प्रतिमा गुनगुना उठी श्रद्धा का उत्तर देती सी ।

"इतना न चमत्कृत हो बाले! अपने मन का उपकार करो ;
मैं एक पकड़ हूँ जो कहती ठहरो कुछ सोच विचार करो ।

अंबर-चुम्बी हिम श्रृंगों से कलरव कोलाहल साथ लिये ;
विद्युत की प्राणमयी धारा बहती जिसमें उन्माद लिये ।

मंगल कुंकुम कि श्री जिसमें निखरी हो ऊषा की लाली ;
भोला सुहाग इठलाता सा हो ऐसी जिसमें हरियाली ।

हो नयनों का कल्याण बना आनंद सुमन सा विकसा हो ;
वासंती के वन-वैभव में जिसका पंचम स्वर पिक सा हो ।

जो गूँज उठे फिर नस नस मे मूर्च्छना समान मचलता सा ;
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता सा ।

नयनों की नीलम की घाटी जिस रस घन से छा जाती हो ;
वह कौंध कि जिससे अंतर की शीतलता ठंढक पाती हो ।

हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का गोधूली की सी ममता हो ;
जागरण प्रात सा हँसता हो जिसमें मध्याह्न निखरता हो ।

हो चकित निकल आई सहसा जो अपने प्राची के घर से ;
उस नवल चन्द्रिका सा बिछले जो मानस की लहरों पर से ।

फूलों की कोमल पंखड़ियाँ बिखरें जिनके अभिनन्दन में ;
मकरन्द मिलाती हों अपना स्वागत के कुंकुम चंदन में ।

कोमल किसलय मर्मर रव से जिसका जय घोष सुनाते हों ;
जिसमें दुख सुख मिलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों ।

उज्ज्वल वरदान चेतना का सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं ;
जिसमें अनंत अभिलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।

मैं उसी चपल की धात्री हूँ गौरव महिमा हूँ सिखलाती ;
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती।

मैं देव सृ्ष्टि की रति रानी निज पंचवाण से वंचित हो ;
बन आवर्जना मूर्ति दीना अपनी अतृप्ति सी संचित हो ।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में अपनी अतीत असफलता सी ;
लीला विलास की खेद भरी अवसाद मयी श्रम दलिता सी ।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ ;
मतवाली सुंदरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ ।

लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती ;
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बन कर जगती ।

चंचल किशोर सुंदरता की मैं करती रहती रखवाली ;
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली ।

"हाँ ठीक,परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ;
इस निविड़ निशा में संसृति की आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पायी हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ ;
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सब से हारी हूँ ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है !
घनश्याम खंड सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है !

सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास महा तरु छाया में ;
चुपचाप पड़ी रहने कीक्यों ममता जगती है माया में ?

छायापथ में तारक द्युति सी झिलमिल करने की मधु लीला ;
अभिनय करती क्यों इस मन में कोमल निरीहता श्रम शीला ?

निस्संबल होकर तिरती हूँ इस मानस की गहराई में ;
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में ।

नारी जीवन का चित्र यही क्या ? विकल रंग भर देती हो ;
अस्फुट रेखा की सीमा में; आकार कला को देती हो ।

रुकती हूँ और ठहरती हूँ पर सोच विचार न कर सकती ;
पगली सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुदिन बकती ।

मैं जभी तोलने का करती उपचार स्वयं तुल जाती हूँ ;
भुज लता फँसा कर नर तरु से झूले सी झोंके खाती हूँ ।

इस अर्पण मे कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है ;
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ इतना ही सरल झलकता है ।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी ! संकल्प अश्रु जल से अपने ;
तुम दान कर चुकीं पहले ही जीवन के सोने से सपने ।

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास रजत नग पग तल में ;
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में ।

देवों की विजय,दानवों की हारों का होता युद्ध रहा ;
संघर्ष सदा उर अंतर में जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा ।

आँसू से भीगे अंचल पर मन का सब कुछ लिखना होगा ;
तुमको अपनी स्मित रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा ।"

Saturday, June 9, 2007

वो जब थी.............!!!



वो जब थी , तो कुछ यूं भी किया करती थी .........................
हाथॉ में लिख के मेरा नाम
अपनी होठों से चुमा करती थी
फिर दुप्पट्टे के उस किनारे को
ऊंगलियों मे मोडा करती थी
शर्माती थी, कुछ घबडाती थी
फिर पलके उठाये मुझको, एक टक निहारती थी
ओ जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी ....................

उसके लम्बे खुले बाल कमर तक लहराते थें
हवा के झोंको से उड कर
चेहरे को ढंक जाते थें
फिर सम्भालती अपनी जुल्फों को
कोइ गीत गुनगुनाती थी
कभी रूठ्ती , कभी जलाती थी
कभी कान्धे से टिक के मेरे ,सपने कई बनाती थी
वो जब थी , तो कुछ यूं भी किया करती थी ............................

बारिश की लेके बूंदें, वो खुब इठ्लाती थी
पास जो उसके जाऊं, दूर निकल जाती थी !
चलना है साथ तुम्हारे, बस यही मुझे समझाती थी
कभी चुप सी थी, कभी गुम सी थी
कभी आंखों के छलकते आंसू, यूं ही पिया करती थी,
वो जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी......................

अब नही है वो! न आयेगी कभी...
अब न कोई लम्हा बनायेगी कभी
आज याद आ रहा है, रूठ के उसका जाना
लाख मनाने पर भी, वापस नही आना
अब मैं समझा हूं वो क्यों,
कुछ यूं भी जिया करती थी,
वो जब थी, तो कुछ यूं भी किया करती थी......
...........-
------------------dimagless



Friday, June 8, 2007

...हम भी थोडा ग़ुलज़ार करेँ..........



इस बाग को,हम भी थोडा ग़ुलज़ार करॅ
दिल मे जो अरमाँ हैँ, उन पर कुछ ऐतबार करेँ.....
माना कि हम मिल न सकेँगे कभी
तो आओ कुछ पल यहीं विश्राम करेँ,
और चिराग जला कर,थोडा इंतज़ार करेँ,
दिल के कुछ सौगात इस गुल पे निसार करेँ!

याद है मुझे अब भी, उनसे पहली बार मिलना
भूला नहीं हूँ आज भी, सपनों का बिखरना
पर संभाले रहा खुद को बस इस आस में
रात के बाद सुबह है, बस यही इंतज़ार में!

तो आओ, फिर एक भोर के लिये
इस रात का भी सम्मान करें,
आओ इस बाग को हम भी थोडा ग़ुलज़ार करें
दिल मे जो अरमाँ हैँ, उन पर कुछ ऐतबार करें................

--------------------dimagless

Thursday, June 7, 2007

मॉफ कीजिएगा मगर मैं चुप नहीं रहूंगा


छोटा मुंह और बडी बात

हां कुछ ऐसा ही माना जाएगा अगर मैं कुछ कहूंगा। मगर मुझे परवाह नहीं। कोई माने या न माने। कहूंगा वही जो कहना है। और कहना यही है कि आज हिंदी के तथाकथित बड़े, पहुंचे हुए और सर्वज्ञ किस्म के लोग जो लिख रहे हैं वह कूडे दान के अलावा कहीं और स्थान पाने योग्य नहीं है। जी हां मैं बात कर रहा हूं उन संपादकों, पत्रकारों और साहित्यकारों की जो नौकरी बचाने या पेट भरने की चाह में कुछ भी अनाप शनाप लिखते चले जा रहे हैं। हां, बगैर किसी शक, शुबहा के इन तथाकथित,स्वनामधन्य और अनामधन्य महोदयों के प्रगतिशील लेखन को मैं खारिज कर रहा हूं। क्योंकि जिस पूर्वाग्रह के साथ लिखा जा रहा है वह बहुत सही नहीं है। कम से कम मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि यह बिलकुल वैसे ही है जैसे किसी बकरे को हलाल करने से पहले खूब चारा खिलाया जा रहा हो. जो लोग केवल बकरा और उसे चारा खिलाने को देख कर मुग्ध हुए जा रहे हैं वह दरअसल पर्दे के पीछे की हकिकत से वाकिफ ही नहीं है. उन्हें मालूम ही नहीं की यह बकरा जल्द ही मार दिया जाएगा. यही वजह है कि वह इसे अद्वितीय घटना मानकर अचंभित हुए जा रहे हैं। उन्हें पता ही नहीं की अगर बकरे को मारे जाने की योजना न होती हो उसे चारा भी नहीं खिलाया जाता.मैं साफ कर देना चाहता हूं कि मैं आपके विरोध में खडा नहीं हूं। दरअसल मैं एक दूसरी हवा चलाने की जुगत भिड़ा रहा हूं जो इस ज़हरीली हवा से हमें निजात दिला सके ।बहरहाल खेल अब आमने सामने का सा दिखने लगा है। तो आईए जरा जोर आजमाईश हो जाए ।