Thursday, July 26, 2007

चीख के आगे...

आपकी कानों तक "चीख" पहूंची इसके लिये धन्यवाद !!!
पर ये क्या-"खाया पिया कुछ नही, हाथ गया रूपया". सोचा था आपके अंदर जो कुछ कर गुजरने की चिंगारी है, वह भभकेगी... पर नहीं, आग उठी और बुझ गयी !
कई सवाल उठे. जिनका जवाब अवश्य दूंगा.
पहले तो आप या तुम शब्द की जगह 'हम' शब्द का प्रयोग इसलिये नही किया, क्योंकि इस 'हम' मे मैं भी शामिल हो जाता. तुम शब्द का प्र्योग तुम्हें जगाने के लिये था.
बिहार को ही सबसे पहले इस लिये चुना क्योंकि मै जड से "चीख" को हिलाना चाहता हूं. शुरूआत कहीं से न कहीं से तो करनी ही है, तो क्यों ना वहीं से की जाये जहां से शुरू करने पर पुरे देश पर ज्यादा असर पडे. और भारत एक है. क्रपा कर चीख को प्रांतवाद के दलदल मे ना घुसेडें. काम करना है तो करें, वरना कहीं और नज़र तलाशें.
कहा गया है यह धीमी प्रक्रिया है. पर रफ्तार कौन फूंकेगा ? हम और आप ही ना ! पहले पहल तो करो! अब इन निर्र्थक बातों का कोई लाभ नही. जितना जोश आपने दिखाया है, उसे यूं ही बरकरार रखने की जरूरत है.
सबसे पहले हम बिहार सरकार के इस बेब साईट पर मुख्यमंत्री के नाम अलग अलग इस संदर्भ मे लिखेंगे, ताकी बात राजनीतिक महकमों तक भी पहूंच जाये की हम सक्रिय हो चुके हैं.
gov.bih.nic.in
साथ ही मै आप लोगों से निवेदन करता हूं, इस संदर्भ मे और अपने विचार रखें, की कैसे इस ओर कदम बढाया जा सकता है. और कैसे इस चीख को खत्म किया जा सकता है.
मीडिया पे मैने कोई हस्तछेप नही लगाया है. बस याद दिलाने की कोशिश की है कि, आज लोगों का सहारा और विश्वास जो इस पर बना है उसे और प्रगाड करने की जरूरत है.
मैं आशा करता हूं की अब प्रतिक्रिया और आलोचनाओं मे अपनी कलम की स्याही बरबाद न कर के सिर्फ काम की बात करेंगे.
ईश्वर हमें शक्ति दे.................
.....................................................dimagless

Wednesday, July 25, 2007

बस एक पत्थर ही तो है....




अभी-अभी मारी है जिसे तुमने ठोकर...


सही कहते हो तुम...


वो रास्ते का रोड़ा..निर्जीव...


बस एक पत्थर ही तो है...


पर चमकते हैं जो आभूषणों में....


वो कीमती नगीने...वो अनमोल रत्न...


वो भी पत्थर ही तो हैं...


बना है जिससे प्रेम का ताजमहल...


वो अप्रतिम सौंदर्य...वो संगमरमर...


वो भी एक पत्थर ही तो है...


घिसते ही जिससे भड़के चिंगारी...


बन जाये जो आग... वो चकमक...


वो भी एक पत्थर ही तो है...


जहां लिखा तुमने पहला अक्षर...


वो पहला शिक्षण...वो स्लेट वो चाक...


वो भी पत्थर ही तो हैं....
जो बना दे लोहे को भी कुंदन..
वो अद्भुत स्पर्श...वो पारस...
वो भी केवल पत्थर ही तो है


पूजते हो जिसे तुम..कहते हो ईश्वर...


वो शिव-शंकर .. वो शालिग्राम...


वो भी पत्थर ही तो हैं...


पत्थरों से बनी ये दुनिया.. भी पत्थर..


खो चुकी जिनमें संवेदनायें.. वो बेजान बुत...


ये खामोश धड़कते तेरे-मेरे दिल...


सब केवल पत्थर ही तो हैं....


Tuesday, July 17, 2007

चीख़ !!

बना लो, जितनी बडी कम्यूनिटी बनानी है बना लो! घर में चाहे एकदूसरे को पहचानते हो या नहीं? पर बाहर अपनी एकजुटता का जितना ढिंढोरा पीटना है पीट लो! इंटरनेट पर ब्लोग बनालो! मीडिया में आपसी भाईचारे के नाम पे जितनी शोबाज़ी करनी है कर लो! पर कभी अपने घर मे झाँक कर नहीं देखना की तुम्हारे अपने 'बिहार' में कितने नीच और पतित समाज की फसल उग-बढ़ रही है ! पर तुम्हे इससे क्या? कहीं झड़प हुई चल दिये अपने बिहारीपन का परिचय देने! इंटरनेट पर बैठे और शुरु हो गयें भाईचारे का राग अलापने! पर कभी इस पर भी विचार किया है, कभी इस संबंध में भी कोई कदम उठाने की कोशिश की है की, जहां जिस मिट्टी में पले बढ़े हो, वहीं ऐसे कु-कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, जिसे सुनकर किसी भी भले मानुष की आंखे शर्म-सार हो जायें!

सुपौल, त्रिवेणीगंज की छेदनी देवी अब अपनी चहार दिवारी से पैर बाहर नहीं निकालती! उसके लिये घर का वह बंद कोना ही उसकी सारी दुनिया है! क्यों? क्योंकि, अब वह मुँह दिखाने के लायक नहीं है! पुरा इलाका उसके नंगे उघड़े बदन को देख चुका है! अस्मत तार तार हो चुकी है!अब कैसे वह तन पर कपड़ों के चंद टुकड़े लपेटे बाहर निकलेगी? इस समाज ने तो उसे पूरी तरह "पारदर्शी" बना दिया है! कसूर? कसूर यह है की वह 'डायन' है ऐसा समाज के चंद ठेकेदार कहते हैं, उसने उस इलाके की एक बच्ची पर टोटका कर के मार डाला है! और उसे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये! क्यों, है की नहीं ? भाई ऐसे समय पर ही तो एकत्व की भावना नज़र आती है ! फिर क्या, उस औरत के तन पर ढँकी उस चादर को बात की बात में निकाल फेंका गया ! अब निर्वस्त्र कर के उसे खड़े-खड़े देखते तो भला अच्छा लगता ? तो उसे पुरे मुहल्ले मे निर्वस्त्र घुमाया गया, उसे पीटा गया और इससे भी तमाशे मे आंनद नहीं आया तो, आंख फोड़ देने की धमकी देकर मैला पिलाया गया! खेल खतम, पैसा हज़म !!


हां!एक ब्रेकिंग न्यूज तो बताई ही नहीं ! इतना बड़ा तमाशा हुआ पर कोई OB-VAN पास नहीं फटकी! अजी वही OB-VAN जो चैनल वाले ले कर चलते है, Live Telecast करने के लिये! ताकी आप घर बैठे ही हो रही घटना का आनंद ले सके! ओह, सचमुच अफसोस रहा, नहीं ?? सीधा प्रसारण हो जाता तो मज़ा ही कुछ और होता!! नहीं ???


पर ज़रा रुकिये तो सही जनाब , अभी तो यह शुरुआत है! पटना के पहाड़ी मुहल्ले में एक बच्ची बीमार पड गयी! बस क्या था, आतताइयों ने इसके लिये कमला को ज़िम्मेदार बता दिया! उसे घर से खींचकर इतना पीटा गया की बेचारी वह तथाकथित "डायन" अधमरी हो गयी! कुछ और लोगों को यश मिला।


क्या कहा, कि इनके घर वाले कुछ नहीं करते? करते हैं साहब, ज्यादातर मामलों मे घर वाले ही सब कुछ करते हैं- समाज के ठेकेदारों से मिल के! हां, मगर कमला जैसे कुछ एक घरवाले आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं तो उनकी भी वो पिटाई होती है कि ऊपर बैठे उनके पुरखे तक ज़बान बन्द रखने की क़सम खा लेते हैं !


अब कहां तक बताएँ आपको! अब तो इस पंचायती राज में किसी की भी खैरियत नहीं साहब और ख़ास तौर पर अगर वो महिला है तो पहले इल्ज़ाम तय और तुरन्त फ़ैसला और उसपर तुर्रा ये कि अगर वो महिला दलित है तो सज़ाओं में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है। जैसे जाजापुर (गोह, औरंगाबाद) में वार्ड पार्षद शोभा देवी को डायन बताकर मारा-पीटा गया! और तो और कुछ दिनों पहले पूर्णिया शहर के बीचोंबीच हज़ारों लोगों ने पुलिस की मौज़ूदगी में सावित्री देवी को जान से ही मार डाला!अब लो इस औरत का भी कसूर पूछ रहे हो?कसूर बता बता कर तो थक गया अब कितनी बार बताउँ।


आखिर यह कैसी विकृत मानसिकता और अपराध को प्रशासन का संरक्षण है, जो किसी की बीमारी खातिर बस "मां बहन और बेटी" को दोषी ठहराती है और उसकी बाक़ायदा सजायाफ्तगी भी करती है ? मैं तुम से सिर्फ इस लिये कह रहा हूं की अगर हम बिहार के होकर भी कोई क़दम नहीं उठाते तो दुसरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?। हमारी यह मूक दर्शक भूमिका हमें हर स्तर पर 'अपराधी' ठहरायेगी ! राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को खत्म किया, और दयानंद जी ने विधवा पूनर्विवाह की शुरुआत उस माहौल में की जब धार्मिक रूढ़िवादिता की नींव को हिलाना तक संभव नहीं था ! तो क्या हम आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में इस "डायन प्रथा" को उखाड नहीं फेंक सकते हैं ? या फिर भू-मंडलीकरण के युग में भी हम यूँ हीं मध्ययुगीन कुरीतियों को मूक-बधिर होकर नज़र- अंदाज़ करते रहेंगे ?


सरकार ने डायन प्रथा विरोधी विधेयक बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है! आज भी यह विधेयक कोरे पन्नों मे क़ैद हो के रह गया है! आज जरुरत है इसे सख़्ती से लागू करवाने की!

उठो ! जागो !! वरना आज किसी की मां-बहन को नंगा करके मुहल्ले मे घुमा रहे हैं, गुप्तांगों को सलाखों से दाग रहे हैं, मल-मूत्र पिला रहे हैं, कल शायद हमारे-तुम्हारे घर की भी बारी आ जाये! तब चुल्लू भर पानी लेके डूब मरना! सिर्फ खाना खा कर दफ़्तर और घर आकर टी.वी. देखकर ज़िन्दगी मत ख़त्म करो ! मनुष्य हो तो मनुष्यता की रक्षा के लिये भी अपना योगदान दो! तभी 'स्त्री' का वास्तविक आदर होगा वो स्त्री जो किसी की माँ,बहन और बेटी है तभी उसका सच्चा सम्मान होगा। तभी एक सुंदर समाज की रचना होगी। वरना याद रखो यह "डायन" की आड़ में किया जा रहा बर्बर और पैशाचिक कार्य कल किसी भी घर का ग्रहण बन सकता है, तब देखना कि तुम तब भी मूक दर्शक न बने रह जाओ! तब देखना कि तुम तब भी सोते न रह जाओ!!

और कभी नींद खुले और यह चीख़... तुम्हारे कानों मे पड़े, तो डरना मत, बल्कि ठंडे दिमाग से सोचना कि आखिर कौन है, असली "डायन" ???...!!!
.............................................................dimagless

Monday, July 16, 2007

अंग्रेज़ी सभ्यता रीति को दूर भगाने वाली

जन-जन को झकझोर ज़ोर से रोज़ जगाने वाली

स्वयं बनी मार्जनी स्वरूपा "सम्पादक की वाणी"

भारत और भारती की जाग्रत वाणी कल्याणी

अपनी श्वेत प्रभा से भाषा से नवराष्ट्र विधात्री

सम्पादन की शुचि रुचि से जन जन की प्राण प्रदात्री

मनुज मनुज को यह प्रदीप्त देवत्व प्रदान करेगी

जीवन में यज्ञीय-प्रतिष्टा प्रद सम्मान वरेगी

सम्पादक की वाणि! देवि! यह अभिनन्दन है मेरा

शाक्त शक्ति जाग्रत कर दो तम हर दो हँसे सवेरा

Friday, July 13, 2007

उसकी खामोशी जाने क्या कहती है..







वो जो खोई-खोई... चुप-चुप सी रहती है....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....



बन्द लबों में चुप सी उदासी...



झुकी नज़रों में भरी नमी सी...



फ़िर भी मुस्कान बिखेरा करती है....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है...






हर पल मशरूफ़ वो कुछ उलझी सी....



हाथों से झुकी लटों को पीछे करती....



जाने क्या सोचा करती है....



उसकी जुल्फ़ें भी परेशान रहा करती हैं.....



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....






जाने कहां देखती रहती है गुम सी....



खुले आंचल में लगती बड़ी भली सी...



खुद से भी अनजानी लगती....



उसकी उंगलियां दुपट्टे से खेला करती है...



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है......






शांत, गहरी, साफ़ आंखें..बिल्कुल आईने सी....



देखती है मुझको...लगती है मुझमें शामिल सी...



पर फ़िर भी एक दूरी सी रहती....



उसकी निगाहें भी सवाल किया करती हैं...



उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....

अबोध मन की पुकार

अबोध मन की पुकार


जब छोटा था। तब जो मन में भाव आते थे। उसे लिख देता था। सालों बाद जब वह रचनाएं हाथ लगीं। तो आपके साथ बांटने से खुद को रोक नहीं सका।



जीवन का कुछ पता नहीं


कायरों के शहर में
बेनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
नामवालों के शहर में
अनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां, लिए जा रही हैं चला जा रहा हूं।
रोने का तो बहुत जी चाहता है,
इन्‍हीं बातों पे हंसा चला जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां जिए जा रही है चला जा रहा हूं

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे

कुछ और मौन

जाडे की रात
ठंडी हवाएं और लिपटी चादर
अलाव जल रहा है।
चारो तरफ सब बैठे हैं।
बोलते हैं, हंसते हैं।
लडते हैं, झगडते हैं।
पर मैं मौन
शांत ही रहता हूं,
अचानक कुछ घटता है।
एक शांति उतर आती है।
चारो ओर शोर में
मौन का अनुभव
बस मौन ही मौन
कुछ और मौन

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे के आसपास



एक बुढिया जो

एक बुढिया जो
आती है दुकान पे
भाव पूछती है
सोचती है कुछ।
पांव कह रहे थे चलो
वह चलकर रूक जाती है
बोझा उतारकर माथा से
बैठ जाती है।

फ‍िर जैसे
बच्‍चों को दुलारती हो वैसे
आलूओं को पुचकारती है
कितना प्रेम बरसता है
फ‍िर, फ‍िर कुछ भी तो नहीं

कुछ रेखाएं उभरती हैं,
माथे पे उसके
उनको पढने का प्रयास करता हूं
पर वह पैसे चुकाकर
चली जाती है
मन कितना अनु‍त्‍तरित रह जाता है।

दिनांक 13 अप्रैल 1996, सोमवार, दोपहर


आज तीन ही। बाकी किस्‍तों में यहीं आती रहेंगी।

Wednesday, July 11, 2007

आपकी उंगली पकड कर मैंने चलना सीखा

आपकी उंगली पकड कर मैने चलना सीखा


चंद शब्‍द कविता से पहले। जिंदगी मेरी है। कहानी मेरी है। किसी बेहद अजीज ने लिखा है। टुकडो में ही उसे अपनी कहानी सुनाई थी। सोचा न था कविता बन जायेगी। सच्‍ची कहानी की सुंदर कविता। शुक्रिया दोस्‍त।




आपकी उंगली पकड़ मैने चलना सीखा॥
आपके साये में ही बीता बचपन मेरा..
आपसे ही पाये सवालों के जवाब॥



आप ही सबसे पहले प्यारे दोस्त बने..
हमारे बीच दो पीढीयों का फ़ासला था...
फ़िर भी मैं सबसे ज्यादा आपसे ही जुड़ा..
मेरी शैतानियों का सरमाया आप ही थे...
आप ही मेरे इकलौते राज़दार थे...


याद है वो दिन मुझे मै १७ बरस का था...
और पहली बार मैने 'उसे' देखा..
मैं कितना प्रफुल्लित.. रोमांचित..
आया और आपसे सब कह दिया...
आपने सुना पर कहा कुछ नहीं...


शाम को जब लौटा...
आपके हाथों में 'उसका' पता था...
मेरे अनगढ पहले प्यार का अंकुर...
आपकी हथेली पर ही पनपा था...
मेरे दिन ख्वाबों से बीतने लगे...
रातें चांदी की होने लगी...


'उसको' देखता और सोचता रहता था...
मेरा मूक प्यार..'उसने' भी कभी कुछ नहीं कहा..
मैने भी कभी कुछ पूछा नहीं..
मेरे अल्हड़, चंचल ने सीख लिया था..
इंतजार करना और परेशान रहना...
एक अनजाने के लिये...


ऐसे ही दिन बीतने लगे...
ख्वाबों के पलक-पावड़ों पर...
इस बीच एक दिन मैंने इजहार भी कर दिया...
पर कोई जवाब आया नहीं..


फ़िर एक दिन मैंने वो शहर छोड़ दिया...
तरक्की की दौड़ में शामिल होने...
इस 'बड़े व्यस्त शहर' में आ गया..
पर फ़िर भी बंधा रहा 'उसके' मोह से..


फ़िर एक दिन खबर मिली की॥
मेरी 'वो' पराई हो गयी....
उसकी यादें मुझे रूला गयी...
मेरे तकिये भिंगो गयी...
मैं खुद को ही खोने लगा...



पर एक दिन आप भी चले गये॥
कभी ना लौटने के लिये...
पर अजीब विडंबना मेरे पत्थर दिल की...
इस बार पलकें तक नहीं भींगी...
शायद अब कुछ खोना नहीं चाहता था..
यादें भी नहीं॥आंसू भी नहीं॥



जिंदगी फ़िर यूं ही चलने लगी..
कुछ खुशियां फ़िर मिली...
जाते हुये मुझे और तन्हा कर गयीं...


अब भी दौड़ रहा हूं॥ जिंदगी के साथ॥

जिंदगी की तलाश में...
अब भी तन्हा हूं.. भीड़ के साथ में...
पर अब दर्द कम होने लगा है...



शायद एक दिन ये कमी पूरी हो जायेगी॥
मैं भी बहुत व्यस्त और सफ़ल हो जाउंगा..
और एक दिन ये सब भूल जाउंगा...
पर आपसे ना कभी मिलूंगा..
ना कभी आपको भूल पाउंगा..

Saturday, July 7, 2007

यूं ही सही.....







एक पल को ही सही पर.... कोई तो कहने को अपना हो...



भूला सा ही सही पर.... होठों पर कोई तो नगमा हो...



झूठा ही सही पर... आंखों में कोई तो सपना हो...



शिकवा ही सही पर... तुम्हें मुझसे कुछ तो कहना हो...



छोटा ही सही पर... जीने को कोई तो लम्हा हो....



दर्द ही सही पर.... दिल को कुछ तो सहना हो...



गम ही सही पर.... मुझे तुमसे कुछ तो मिलना हो...



अंधेरा सा ही सही पर.... घर में मेरा भी तो एक कोना हो...



अनजाना ही सही पर.... मेरा तुमसे कोई तो रिश्ता हो...



Friday, July 6, 2007

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए

निदा फाजली

निदा फाजली साहब के क्‍या कहने। उनके बारे में कुछ कहना सूरज को चिराग द‍िखाने के बराबर है। उर्दू शायरी के इस शायर को जिंदगी की कहानी कहने में महारत हासिल है । पेश है उनकी चंद रचनाएं ।


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में ब‍िखरी हुई चीजों को सजाया जाए।

जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चिरागों को बुझने से बचाया जाए।

बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए।

खुदकुशी करने की हिम्‍मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन इसी तरह औरों को सताया जाए।

घर से बहुत दूर है मस्‍जीद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्‍चे को हंसाया जाए ।


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे।

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोडी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे।

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे ।

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे।



घूप में निकलों घटाओं में नहाकर देखो


घूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
जिंदगी क्‍या है किताबों को हटा कर देखो।

वो सितारा है चमकने दो यूं ही आंखों में
क्‍या जरूरी है उसे जिस्‍म बना कर देखो।

पत्‍थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं
अपने घरों की दर ओ दिवार सजा कर देखो।

फासला नजरों का धोखा हो सकता है
वो मिले या ना मिले हाथ बढा कर देखो।



दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट़टी खो जाए तो सोना है।

अच्‍छा सा कोई मौसम तन्‍हा सा कोई आलम
हर वक्‍त का रोना तो बेकार का रोना है।

बरसात का बादल तो दीवाना है क्‍या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है।

गम हो कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फ‍िर रस्‍ता ही रस्‍ता है हंसना है न रोना है।


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा
मैं ही कश्‍ती हूं मुझमें ही संमदर है मेरा।

किससे पूछूं कि कहां गुम हूं बरसो से
हर जगह ढूंढता फ‍िरता है मुझे घर मेरा।

एक से हो गए हैं मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आंखों से कहीं खो गया मंजर मेरा।

मुद़दतें बीत गई ख्‍वाब सुहाना देखे
जागता रहा हर नींद में बिस्‍तर मेरा।

आईना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ्‍ा में महफूज है पत्‍थर मेरा।


मां


बेसन की सोंधी रोटी पर
खट़टी चटनी जैसी मां।
याद आती है चौका बासन
चिमटा फूंकनी जैसी मां ।

बांस की खुर्री खाट के उपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी मां।

चिडियो के चहकार में गुंजे
राधा मोहन अली अली
मुर्गे की आवाज से खुलती
घर की कुडी जैसी मां।

बिवी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्‍सी के उपर
चलती नटनी जैसी मां।

बांट के अपना चेहरा, माथा
आंखें जाने कहां गई
फटे पुराने इक एल्‍बम में
चंचल लडकी जैसी मां।


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है
दो आंखो में एक से हंसना एक से रोना है।

जो जी चाहे वो मिल जाए कब ऐसा होता है
हर जीवन, जीवन जीने का समझौता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है।

रात अंधेरी भोर सुहानी यही जमाना है
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है
आती सांस को पाना जाती सांस को खोना है।

Tuesday, July 3, 2007

मैं बस एक गुजरता लम्हा हूं


"क्यूं इतने सवाल करते हो मुझसे... इतने प्रश्नचिन्ह किसलिये????..... तुम भी जानते हो और मैं भी... कोई रिश्ता नहीं तुम्हारे मेरे बीच.... ना हम साथी ना ही हमसफ़र...ये बस एक राह्गुजर जहां हम मिले अचानक यूं ही.... मैं ना तुम्हारे कल में शामिल थी..... ना आने वाला कल मुझसे जुड़ा है..... मैं बस अभी हूं... यहीं केवल इस पल में शामिल हूं.... मैं खुशी हूं चंद लम्हे लाई हूं... प्यार के... मुस्कान के.. साथ हूं कुछ दूर का बस.... आई हूं अपनी मुस्कान तुम्हारे होठों पर सजाने... कुछ लम्हों के फ़ूल जिंदगी में खिलाने... देखो मेरी निगाहों से दुनिया को... सजने दो पलकों में फ़िर सपने नये.... तुम किस कशमकश में हो... कैसी उलझन... ये कैसा अविश्वास मेरे होने पर.... मैं एक गुजरता लम्हा हूं...गुजर जाउंगी बहते वक्त के साथ... एक लहर हूं आई हूं और लौट भी जाउंगी... मन की सूखी मिट्टी को भिगोने दो मुझे.... होने दो गीला-गीला मन.....गुनगुना लो इस भीगे नग्मे को .. अपने सूखे होठों पर..कर लो साथ जिंदगी के लम्हों में.... शामिल नहीं हो सकती तुममें... ना होना चाहती हूं... मैं बस एक एहसास हूं .... मह्सूस करो.... क्यूं बांध रखा है खुद को... कैसा डर खुशी से, रंगों से.... मैं आई हूं रंग भरने... जिंदगी की तस्वीर में... कल जब चली जाउंगी... दे जाउंगी ये तस्वीरें .. कुछ यादें.. गीला मन.... खिली मुस्कान.. चंद गीत....ना कभी थी ना कभी रहूंगी.... चाहा कुछ नहीं.... बस लौटाने आई हूं तुम्हारे ख्वाब...विश्वास...सरगम...तुम्हारी जिंदगी....अब और सवाल मत करो... यकीन करो इस गुजरते लम्हे का.... खोने दो मुझे .. तुम खुद को पा लो... देखो बीतता जाता है वक्त.... और गुजरना है मुझे भी...."