मेरठ में पुराने दररख्तों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है, जिससे कई देसी प्रजातियों को खतरा उत्पन्न हो गया है।
कठफोड़वा की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। इस चिडिय़ा को खाने और घर बनाने के लिए कम से कम 50 से 70 साल पुराने और मोटे पेड़ चाहिए। जिसके तने में वह 60 से 70 सेमी गहरे गोल छेद बना सके। मेरठ में एेसे दरख्तों की संख्या बहुत कम हो गई है। नतीजतन कठफोड़वा के सामने रहने-खाने का संकट खड़ा होता जा रहा है। एनसीआर समेत आसपास के इलाकों का हाल भी बहुत जुदा नहीं है। काटे जा रहे पुराने दरख्तों की वजह से कठफोड़वा की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। कुछ यही हाल लाल, हरे,भूरे और सफेद धब्बों वाली बारवेट प्रजातियों का है।
कभी पूरे एनसीआर के इलाकों में हजारों की तादाद में पाए जाने वाली इन चिडिय़ों की संख्या तेजी से कम होती जा रही है। सुंदर चोच वाली हार्नबिल चिडिय़ों की आबादी भी इसी वजह घट रही है। दरअसल रेड, ग्रीन और ब्राउन हेडेड बारवेट समेत ग्रे और अन्य हार्नबिल को भी पुराने दरख्तों में बने बड़े खोल चाहिए, जो धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। पुराने दरख्तों के काटे जाने का सीधा असर इन प्रजातियों की प्रजनन प्रक्रिया पर पड़ रहा है। दरअसल पेड़ खत्म हो जाने से ब्रीडिंग धीमी हो गई है। वन्य जीव वैज्ञानिक रजत भार्गव के मुताबिक, वेस्ट यूपी में हालात तेजी से खराब होते जा रहे हैं। उनकी मानें तो मेरठ समेत एनसीआर इलाके में दरख्तों की संख्या कम होती जा रही है। उन्होंने साफ किया अगर पुराने पेड़ नहीं बचाए गए तो इन पंछियों को बचाना बेहद मुश्किल होगा।
देसी चिडिय़ों का ब्रीडिंग मौसम
मार्च - अप्रैल - पाराकीटस और हार्नबिल
जून-जुलाई - मैगपाई रॉबीन, वुडपैकर और बारवेट
इन पंछियों के प्रजनन पर पड़ रहा असर
पैराकीट
हॉर्नबिल
वुडपैकर
बारवेट
पंछियों को चाहिए यह पेड़
जामुन, सेमल, नीम, पीपल, गुलर, पीलखन
पुराने पेड़ क्यों चाहिए
पुराने पेड़ इन पंछियों को खाना उपल्बध कराते हैं। साथ ही उसमें बनाए जाने वाले खोटरों में रहने की सुविधा भी मिलती है। खास बात यह है कि ब्रिडिंग के लिए जरूरी है। साथ ही पंछियों के छोटे बच्चों के लिए यह खोटर खाना और सुरक्षा भी प्रदान करते हैं। वाटरलविंग बर्डस और कठफोड़वा जैसी मजबूत चोंच वाली चिडिय़ां इन फटासों में मौजूद कीड़ों को खूब मजे से खाती हैं। तनों में करीब 60 से 70 सेमी गहरे गोल छिद्र बनाती हैं। जबकी बाद में हार्नबिल जैसे पंछी छह माह में एक मीटर तक गहरा बना देते हैं।
पॉपुलर, यूकेलिप्टस और एलेस्टोनिया
एनसीआर समेत वेस्ट यूपी के शहरों में पॉपुलर, यूकेलिप्टस और एलेस्टोनिया के पेड़ों की संख्या बेहद ज्यादा है। पॉपुलर और यूकेलिप्टस के तने में फटास नहीं होती। चिकने तनों में कीड़े भी नहीं होते और तना खासा सख्त होता है। चिडिय़ों के इनके तनों में भोजन नहीं मिलता इसलिए इसमें खोटर नहीं बनाती, वहीं एलेस्टोनियों को डेवील ट्री या पार्किंग ट्री भी कहा जाता है। इस पेड़ पर पंछी घोसला लगाना तो दूर बैठना तक पसंद नहीं करते।
लाखों चिडिय़ां हो जाएंगी बेघर
कभी देहरादून जाने वाली सड़क के किनारे पुराने दरख्त थे। जहां चिडिय़ों की बड़ी आबादी थी। वक्त के साथ सारे पेड़ विकास की भंेट चढ़ गए। चिडिय़ों की आबादी भी इलाके से गायब हो गई। अब एक बार फिर यही कहानी दोहराई जाने वाली है। गंग नगर के किनारे लगाए गए पेड़ों को काटा जाना तय हो चुका है। एक्सप्रेस-वे को आठ लेन से बनाने के लिए करीब चालीस हजार पेड़ काटे जाने हैं। जिसमें बड़ी संख्या पुराने दरख्तों की हैं, जिससे एक बार फिर चिडिय़ों की बड़ी आबादी को खतरा पैदा हो गया है। बताते चलें कि इस पूरे रास्ते पर पेड़ों की कटान शुरू भी हो गई है।
Wednesday, April 14, 2010
Sunday, April 4, 2010
कभी जंग ए आजादी देखी थी मैंने, आज हमवतनों ने आग लगा दिया
- मैं बूढ़ा नीम का पेड़ हूं
मॉल रोड पर करीब दो सौ साल पुराने पेड़ में किसी ने आग लगा दी। शनिवार दोपहर बाद पेड़ गिर चुका था। वेस्ट यूपी मंे नीम के बूढ़े दरख्तों में जानबूझकर आग लगा दी जाती है।
मेरठ में कभी जंग-ए-आजादी देखी थी मैंने। मॉल रोड पर फिरंगियों का राज आज भी याद है मुझे। आजादी की पहली लड़ाई के दौरान वीर सपूतों ने मेरे सामने ही अंग्रेजों को खदेड़ा था। ब्रितानी राज के खात्मे के बाद हिन्दुस्तानी हुकूमत के परवान चढऩे का भी मैं गवाह रहा था। मगर मेरे हम वतनों ने ही शनिवार देर रात को मेरी खोखली हो चुकी जड़ों में आग लगा दी।
मैं नीम का पेड़ हूं। मेरी उम्र तुम्हारी तीन पुश्तों से भी ज्यादा है। बीते डेढ़ सौ सालों से मैं मॉल रोड के इतिहास के हर पल का गवाह रहा हूं। बीसी जोशी ऑफिसर्स इन्कलेव के रास्ते पर मेरी घनी छांव राहगीरों को तपती दुपहरी में सकून पहुंचाती थी। मेरठ कैंट में रहने वालों को जन्म से ही शुद्ध ऑक्सीजन दे रहा हूं। ना मालूम कितने पक्षियों को आसरा दिया मैंने। मगर ढलती उम्र में दीमक का शिकार होने के बाद मुझे ही आग लगा दी।
एक दिन पहले तक तोपखाने और लालकुर्ति समेत आस पास के इलाके से महिलाएं मेरी पूजा करने आती थी। मेरी छांव में कई देवताओं की मूर्तियों को विश्राम दिया। पर जब आग लगी तो फायर विभाग भी खानपूर्ति करने पहुंचा। शनिवार दोपहर तपती दुपहरी में मैं धीमे-धीमे जलता रहा। मगर कोई मुझे बचाने नहंी पहुंचा। आग की वजह से दोपहर में भरभराकर गिर गया। शाम तक भी धुंआ मेरे तनो को बुरी तरह जला चुका था।
बीते बीस घंटों से मॉल रोड पर मेरे कई हम उम्र साथी मुझे जलता देखने को मजबूर है। कुछ माह पहले मेरे ही सामने मॉल रोड पर करीब पांच मीटर दूर मुझसे भी दो गुणी उम्र के पेड़ को काट डाला गया था। तब मैं खामोश था। आज सब खामोश हैं।
शम्सुद्दीन का गुस्सा
शनिवार दोपहर को 76 साल के शमसुद्दीन जलते पेड़ को देखने पहुंचे थे। कभी शाहपीर गेट पर रहने वाले और फिलहाल तोपखाना निवासी शमसुद्दीन बेहद गुस्से में थे। दरअसल उनकी बचपन की यादें इस पेड़ से जुड़ी थी। उन्होंने बताया कि डोगरा लेन, सीडीओ ऑफिस के पीछे और साकेत स्थित नीम के पेड़ की तरह इसमें भी अंधविश्वास की वजह से आग लगाइ जा चुकी है। उन्होंने बताया कि अंधविश्वासी मानते हैं किसी पुराने नीम के पेड़ मंे आग लगा देने से संतानप्राप्ती होती है। इसी अंधविश्वास की वजह से करीब दो सौ साल पुराने नीम के पेड़ को जला दिया गया।
Wednesday, January 27, 2010
मैंने समझा पारिश्रमिक किसी कवि का नाम है
- डॉ कुंवर बेचैन
बात सन 19५८ की है। चंदौसी के आर आर इंटर कॉलेज में कवि सम्मेलन था। काका हाथरसी और नीरज के साथ पहली बार मंच पर पढऩे का मौका मिला था। मैं तब इंटर में था। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद संयोजक सुरंेद्र मोहन मिश्र ने पूछा पारिश्रमिक मिला या नहीं। मुझे लगा पारिश्रमिक किसी कवि का नाम है सो मैंने कहा नहीं। तब वह रिक्शे से मुझे पिं्रसिपल के घर ले गए। नीचे ही आवाज देकर चिल्लाए। प्रिसिंपल साहब। अंदर से किसी महिला की आवाज आई - वो तो अभी कॉलेज में ही हैं। हम लोग उसी रिक्शे से वापस कॉलेंज पहुंचे। पिं्रसिपल साहब को देखेत ही बोले। इसे इसका पारिश्रमिक तो दे दो । मुझे पांच रुपये दिए गए। तब मुझे पता चला पारिश्रमिक का मतलब पैसा होता है। मंच पर कविता पढऩे की एेसी शुरूआत हिंदी के मशहूर कवि डॉ कुंवर बैचेन की है। आज उन्हें मंच पर कविता पढ़ते पढ़ते 5१ साल हो गए। इतना सम्मान, यश और सफलता केवल चुनिंदा लोगों को मिल पाती है। बावजूद इसके वह आज भी रचनाकार के सहज होने की वकालत करते हैं। उनकी मानें तो मंच और कविता के लिहाज से फिहलाल संक्रमण काल जारी है। जिसके बीतते ही मंचीय कविता और शायरी का सुनहरा दौर लौट आएगा।
-
कवि परिचय
डॉ कुंवर बैचेन
हिन्दी के वरिष्ठ कवि, रचनाकार
मंच पर पांच दशक से सक्रिय, 19 देशो की यात्राएं
मंच पर पहला पाठन- 19५5 में नौंवी कक्षा में स्कूल में , 19५८ में कवि सम्मेलन में
पंसद-ए-जायका- उड़द की दाल/ रोटी
कविता -
सांस का हर सुमन है वतन के लिए
जिंदगी ही हवन है वतन के लिए
कह गईं फांसियों में फंसी गर्दनें
यह हमारा नमन है वतन के लिए
--
बात सन 19५८ की है। चंदौसी के आर आर इंटर कॉलेज में कवि सम्मेलन था। काका हाथरसी और नीरज के साथ पहली बार मंच पर पढऩे का मौका मिला था। मैं तब इंटर में था। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद संयोजक सुरंेद्र मोहन मिश्र ने पूछा पारिश्रमिक मिला या नहीं। मुझे लगा पारिश्रमिक किसी कवि का नाम है सो मैंने कहा नहीं। तब वह रिक्शे से मुझे पिं्रसिपल के घर ले गए। नीचे ही आवाज देकर चिल्लाए। प्रिसिंपल साहब। अंदर से किसी महिला की आवाज आई - वो तो अभी कॉलेज में ही हैं। हम लोग उसी रिक्शे से वापस कॉलेंज पहुंचे। पिं्रसिपल साहब को देखेत ही बोले। इसे इसका पारिश्रमिक तो दे दो । मुझे पांच रुपये दिए गए। तब मुझे पता चला पारिश्रमिक का मतलब पैसा होता है। मंच पर कविता पढऩे की एेसी शुरूआत हिंदी के मशहूर कवि डॉ कुंवर बैचेन की है। आज उन्हें मंच पर कविता पढ़ते पढ़ते 5१ साल हो गए। इतना सम्मान, यश और सफलता केवल चुनिंदा लोगों को मिल पाती है। बावजूद इसके वह आज भी रचनाकार के सहज होने की वकालत करते हैं। उनकी मानें तो मंच और कविता के लिहाज से फिहलाल संक्रमण काल जारी है। जिसके बीतते ही मंचीय कविता और शायरी का सुनहरा दौर लौट आएगा।
-
कवि परिचय
डॉ कुंवर बैचेन
हिन्दी के वरिष्ठ कवि, रचनाकार
मंच पर पांच दशक से सक्रिय, 19 देशो की यात्राएं
मंच पर पहला पाठन- 19५5 में नौंवी कक्षा में स्कूल में , 19५८ में कवि सम्मेलन में
पंसद-ए-जायका- उड़द की दाल/ रोटी
कविता -
सांस का हर सुमन है वतन के लिए
जिंदगी ही हवन है वतन के लिए
कह गईं फांसियों में फंसी गर्दनें
यह हमारा नमन है वतन के लिए
--
Monday, January 25, 2010
बात बशीर बद्र की --
तो राहत को ढूंढता फिरेगा बशीर बद्र
आज के गालिब या नए जामाने के मीर 'बशीर बद्र' से बातचीत शुरू करते वक्त हमने शेरो-शायरी या उर्दू लिट्रेचर से बजाए एक अलग सवाल पूछा। अगर बशीर बद्र एक बार फिर 17 साल के हो जाएं, तो क्या करेगें ? एक पल गंवाए बगैर उन्होंने कहा बद्र, राहत को ढूंढता फिरेगा। इतना बोलना था कि पीछे पीले पैराहन में बैठी राहत बद्र हंस पड़ी। शोख मुस्कुराहटों के उस दौर के बीच बशीर ने राहत को देखा। माहौल में शायरी घुल चुकी थी। मेरठ में होटल का वह कमरा शायरना हो चुका था। हमने दोबारा पूछा अगर राहत नहीं मिलतीं तो क्या बशीर मेरठ छोड़कर भोपाल चले जाते ? उन्होंने कहा कि जहां राहत होती वही पहुंच जाते। सवाल का अंदाज बदला तो उन्होंने कहा कि सारी दुनिया दे दीजिए तो भी उसे भोपाल ले आउंगा।
प्यार से भटकते सवाल अब भाषा तक पहुंचने लगे थे। बशीर बोले, शायरी की जुबान दिल की जुबान होती है। जज्बात शायरी है। जिंदगी शायरी है। उन्होंने कहा कि उर्दू और हिंदी का सवाल नहीं। यह तो महज लिखने का तरीका है। जो नीरज हिंदी में लिखते हैं । और जो बशीर उर्दू में रचते हैँ। वहीं शायरी है। वहीं मुक्कमल कविता है। नए जमाने के शायरों के बारे में उन्होंने साफगोई से कहा कि शायरी के लिए उर्दू आनी चाहिए। शायरी के लिए हिंदी की जानकारी चाहिए। शायरी वह है इल्म है जिसके लिए जिंदगी आनी चाहिए।
बात निकली तो बड़े शायर ने माना कि उनकी जितनी किताबें उर्दू में बिकती हैं उससे पांच गुणा किताब हिंदी में बिकती है। तय है शायरी किसी भाषा या किसी महजब की गुलाम नहीं। मौके पर उन्होंने अरबी और फारसी में कई शब्दों के न होने की दिक्कतों और उनके बहुत हद तक किताबी और आम-आवाम से दूर होने का हवाला भी दिया। करीब पौने घंटे के बाद माहौल घुल चुका था। उन्होंने माना कि सरहद के उस पार के राजनेता बेवकूफ है जो अपने लोगों को गलत तौर से बरगला रहे हैं। उन्होंने बताया की राजनीति काटना जानती है। जबकि शायरी दिलों को जोड़ती है।
सरहद पार लाहौर में रहने वाले दोस्त की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि चाहें दोनोंं मुल्क एक दूसरे के खिलाफ हो जाएं। वह दोस्त के लिए हमेशा दुआएं करेंगे। इस बीच उन्होंने पाकिस्तानी में छपी उनकी किताब की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने कहा कि वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंंदी में तीन अगल अलग पुस्तक फूलों की छतरीयां, सात जमीनें एक सितारा और मोहब्बत खुशबू हैं नाम से प्रकाशित किया जा रहा है।
तमाम बातों के बीच ना जाने कहां से शादी की बात छिड़ गई। बशीर गंभीर हो गए। गौर से देखा। चश्मा उतार कर टेबल पर रख दिया। बोले...मेरे छोटे दोस्त मेरे पास तीन कार है। जल्द ही चौथी कार खरीद रहा हूं। जिसे राहत को दे दूंगा। उसके बाद कभी कार नहीं खरीदूगां। दरअसल इस्लाम में चार शादियां करने की इजाजत है। उसके बाद नहीं। इसलिए चार कार। बातों ही बातों में मेरठ में दंगे के दौरान शास्त्रीनगर के डी-१२0 के जलाए जाने और उसके बात उनके जेहन में आई। बशीर बोल रहे थे कि - वे (प्रशासन और आम लोग, उनके प्रेमी सहयोगी) पैसे देने की बात करते थे। मैंने मना कर दिया। कहा कि दो चार मुशायरे पढ़ लूंगा। इससे भी अच्छा घर बन जाएगा । -
इजाजत लेने से एेन पहले हमने उनसे खुराक और लज्जत की बात जानने की कोशिश की। तो नए जमाने के सबसे मशहूर शायर का कहना था, गोश्त छोड़कर सब पसंद है। उम्र के इस मुकाम पर उन्होंने बाकी बचे अरमान को उन्होंने बेमानी बताया हालांकि राहत की ओर देखकर बोले- भाई, बीबी डराती बहुत है। होटल के उस शायरान माहौल से उठने से पहले हम राहत से मुखातिब हुए। हमने पूछा कि आप लंबे समय से साथ है। कहीं न कहीं बशीर बद्र की इंस्पीरेशन हैं। आप क्या सोचती है। बशीर साहब के बारे में। खिलकर मुस्कुराने से पहले वह अचानक गंभीर हो गई। फिर हंसी तो देर तक हंसती रहीं। बोली, बशीर बिलकुल नहीं बदले। जो फर्क आया है उम्र की वजह से आया है। इस उम्र में कुछ याददाश्त कमजोर सी होनी लगी है। बस और बाकी सब वैसे ही है। बशीर साहब ने एक बार इश्क की चर्चा छेड़ दी। तब तक खाना आ चुका था। मजा देखीए काले लिबास में लिपटा बैरा दो थालियां लाया था। बशीर ने बीबी की ओर देखा और दोनों एक साथ ही बोले। एक ही थाली बहुत हैं। दूसरी ले जाओ। उन्होंने जिद की। आप भी साथ खाएं। पर दूसरे कमरे में अंजुम साहिबा (अंजुम रहबर) थी और तीसरे में डॉ कुंवर बैचेन थे। अब उन दोनों की बातें अगली किस्तों में ।
-
परिचय की जरूरत ही नहीं -
जो शायरी जानता है। समझता है। बशीर की इज्जत करता है। जो नहीं जानता वह बशीर को पूजता है। मेरे ख्याल से मैंने अपनी जिंदगी मंे एक शख्स एेसा नहीं देखा जिसने कभी बशीर साहब की कोई शायरी न पढ़ी या सुनी हो।
--
बशीर बद्र , 15 फरवरी 19३५
56 साल से हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायर
दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे
दर्जनों किताबें
पसंद-ए-जायका- दाल रोटी और सब्जी
-
तेरह साल की उम्र में लिखी रचना
उजाले अपनी यादों को हमारे साथ रहने दो
ना जाने किसी गली मेंे जिंदगी की शाम हो जाए
आज के गालिब या नए जामाने के मीर 'बशीर बद्र' से बातचीत शुरू करते वक्त हमने शेरो-शायरी या उर्दू लिट्रेचर से बजाए एक अलग सवाल पूछा। अगर बशीर बद्र एक बार फिर 17 साल के हो जाएं, तो क्या करेगें ? एक पल गंवाए बगैर उन्होंने कहा बद्र, राहत को ढूंढता फिरेगा। इतना बोलना था कि पीछे पीले पैराहन में बैठी राहत बद्र हंस पड़ी। शोख मुस्कुराहटों के उस दौर के बीच बशीर ने राहत को देखा। माहौल में शायरी घुल चुकी थी। मेरठ में होटल का वह कमरा शायरना हो चुका था। हमने दोबारा पूछा अगर राहत नहीं मिलतीं तो क्या बशीर मेरठ छोड़कर भोपाल चले जाते ? उन्होंने कहा कि जहां राहत होती वही पहुंच जाते। सवाल का अंदाज बदला तो उन्होंने कहा कि सारी दुनिया दे दीजिए तो भी उसे भोपाल ले आउंगा।
प्यार से भटकते सवाल अब भाषा तक पहुंचने लगे थे। बशीर बोले, शायरी की जुबान दिल की जुबान होती है। जज्बात शायरी है। जिंदगी शायरी है। उन्होंने कहा कि उर्दू और हिंदी का सवाल नहीं। यह तो महज लिखने का तरीका है। जो नीरज हिंदी में लिखते हैं । और जो बशीर उर्दू में रचते हैँ। वहीं शायरी है। वहीं मुक्कमल कविता है। नए जमाने के शायरों के बारे में उन्होंने साफगोई से कहा कि शायरी के लिए उर्दू आनी चाहिए। शायरी के लिए हिंदी की जानकारी चाहिए। शायरी वह है इल्म है जिसके लिए जिंदगी आनी चाहिए।
बात निकली तो बड़े शायर ने माना कि उनकी जितनी किताबें उर्दू में बिकती हैं उससे पांच गुणा किताब हिंदी में बिकती है। तय है शायरी किसी भाषा या किसी महजब की गुलाम नहीं। मौके पर उन्होंने अरबी और फारसी में कई शब्दों के न होने की दिक्कतों और उनके बहुत हद तक किताबी और आम-आवाम से दूर होने का हवाला भी दिया। करीब पौने घंटे के बाद माहौल घुल चुका था। उन्होंने माना कि सरहद के उस पार के राजनेता बेवकूफ है जो अपने लोगों को गलत तौर से बरगला रहे हैं। उन्होंने बताया की राजनीति काटना जानती है। जबकि शायरी दिलों को जोड़ती है।
सरहद पार लाहौर में रहने वाले दोस्त की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि चाहें दोनोंं मुल्क एक दूसरे के खिलाफ हो जाएं। वह दोस्त के लिए हमेशा दुआएं करेंगे। इस बीच उन्होंने पाकिस्तानी में छपी उनकी किताब की चर्चा छेड़ दी। उन्होंने कहा कि वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंंदी में तीन अगल अलग पुस्तक फूलों की छतरीयां, सात जमीनें एक सितारा और मोहब्बत खुशबू हैं नाम से प्रकाशित किया जा रहा है।
तमाम बातों के बीच ना जाने कहां से शादी की बात छिड़ गई। बशीर गंभीर हो गए। गौर से देखा। चश्मा उतार कर टेबल पर रख दिया। बोले...मेरे छोटे दोस्त मेरे पास तीन कार है। जल्द ही चौथी कार खरीद रहा हूं। जिसे राहत को दे दूंगा। उसके बाद कभी कार नहीं खरीदूगां। दरअसल इस्लाम में चार शादियां करने की इजाजत है। उसके बाद नहीं। इसलिए चार कार। बातों ही बातों में मेरठ में दंगे के दौरान शास्त्रीनगर के डी-१२0 के जलाए जाने और उसके बात उनके जेहन में आई। बशीर बोल रहे थे कि - वे (प्रशासन और आम लोग, उनके प्रेमी सहयोगी) पैसे देने की बात करते थे। मैंने मना कर दिया। कहा कि दो चार मुशायरे पढ़ लूंगा। इससे भी अच्छा घर बन जाएगा । -
इजाजत लेने से एेन पहले हमने उनसे खुराक और लज्जत की बात जानने की कोशिश की। तो नए जमाने के सबसे मशहूर शायर का कहना था, गोश्त छोड़कर सब पसंद है। उम्र के इस मुकाम पर उन्होंने बाकी बचे अरमान को उन्होंने बेमानी बताया हालांकि राहत की ओर देखकर बोले- भाई, बीबी डराती बहुत है। होटल के उस शायरान माहौल से उठने से पहले हम राहत से मुखातिब हुए। हमने पूछा कि आप लंबे समय से साथ है। कहीं न कहीं बशीर बद्र की इंस्पीरेशन हैं। आप क्या सोचती है। बशीर साहब के बारे में। खिलकर मुस्कुराने से पहले वह अचानक गंभीर हो गई। फिर हंसी तो देर तक हंसती रहीं। बोली, बशीर बिलकुल नहीं बदले। जो फर्क आया है उम्र की वजह से आया है। इस उम्र में कुछ याददाश्त कमजोर सी होनी लगी है। बस और बाकी सब वैसे ही है। बशीर साहब ने एक बार इश्क की चर्चा छेड़ दी। तब तक खाना आ चुका था। मजा देखीए काले लिबास में लिपटा बैरा दो थालियां लाया था। बशीर ने बीबी की ओर देखा और दोनों एक साथ ही बोले। एक ही थाली बहुत हैं। दूसरी ले जाओ। उन्होंने जिद की। आप भी साथ खाएं। पर दूसरे कमरे में अंजुम साहिबा (अंजुम रहबर) थी और तीसरे में डॉ कुंवर बैचेन थे। अब उन दोनों की बातें अगली किस्तों में ।
-
परिचय की जरूरत ही नहीं -
जो शायरी जानता है। समझता है। बशीर की इज्जत करता है। जो नहीं जानता वह बशीर को पूजता है। मेरे ख्याल से मैंने अपनी जिंदगी मंे एक शख्स एेसा नहीं देखा जिसने कभी बशीर साहब की कोई शायरी न पढ़ी या सुनी हो।
--
बशीर बद्र , 15 फरवरी 19३५
56 साल से हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायर
दुनिया के दो दर्जन से ज्यादा मुल्कों में मुशायरे
दर्जनों किताबें
पसंद-ए-जायका- दाल रोटी और सब्जी
-
तेरह साल की उम्र में लिखी रचना
उजाले अपनी यादों को हमारे साथ रहने दो
ना जाने किसी गली मेंे जिंदगी की शाम हो जाए
Subscribe to:
Posts (Atom)