Wednesday, January 27, 2010

मैंने समझा पारिश्रमिक किसी कवि का नाम है

- डॉ कुंवर बेचैन

बात सन 19५८ की है। चंदौसी के आर आर इंटर कॉलेज में कवि सम्मेलन था। काका हाथरसी और नीरज के साथ पहली बार मंच पर पढऩे का मौका मिला था। मैं तब इंटर में था। कवि सम्मेलन समाप्त होने के बाद संयोजक सुरंेद्र मोहन मिश्र ने पूछा पारिश्रमिक मिला या नहीं। मुझे लगा पारिश्रमिक किसी कवि का नाम है सो मैंने कहा नहीं। तब वह रिक्शे से मुझे पिं्रसिपल के घर ले गए। नीचे ही आवाज देकर चिल्लाए। प्रिसिंपल साहब। अंदर से किसी महिला की आवाज आई - वो तो अभी कॉलेज में ही हैं। हम लोग उसी रिक्शे से वापस कॉलेंज पहुंचे। पिं्रसिपल साहब को देखेत ही बोले। इसे इसका पारिश्रमिक तो दे दो । मुझे पांच रुपये दिए गए। तब मुझे पता चला पारिश्रमिक का मतलब पैसा होता है। मंच पर कविता पढऩे की एेसी शुरूआत हिंदी के मशहूर कवि डॉ कुंवर बैचेन की है। आज उन्हें मंच पर कविता पढ़ते पढ़ते 5१ साल हो गए। इतना सम्मान, यश और सफलता केवल चुनिंदा लोगों को मिल पाती है। बावजूद इसके वह आज भी रचनाकार के सहज होने की वकालत करते हैं। उनकी मानें तो मंच और कविता के लिहाज से फिहलाल संक्रमण काल जारी है। जिसके बीतते ही मंचीय कविता और शायरी का सुनहरा दौर लौट आएगा।
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कवि परिचय

डॉ कुंवर बैचेन
हिन्दी के वरिष्ठ कवि, रचनाकार
मंच पर पांच दशक से सक्रिय, 19 देशो की यात्राएं
मंच पर पहला पाठन- 19५5 में नौंवी कक्षा में स्कूल में , 19५८ में कवि सम्मेलन में
पंसद-ए-जायका- उड़द की दाल/ रोटी

कविता -

सांस का हर सुमन है वतन के लिए
जिंदगी ही हवन है वतन के लिए
कह गईं फांसियों में फंसी गर्दनें
यह हमारा नमन है वतन के लिए
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3 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत रोचक रहा यह जानना.

डॉ साहब जैसा सहज व्यक्तित्व बिरला है.

नमन!

Randhir Singh Suman said...

nice

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर संस्मरण है। उनका ब्लाग भी देखा है मगर आज कल निष्क्रिय है । धन्यवाद्