Thursday, May 31, 2012

इस घुटन के पार..


एक आदिम चीख सी दबी है
 जैसे कहीं अंदर 
घुटन का हटे
 जो रूह से पत्थर
 तो शायद मिल जाए
 उसको कोई स्वर। 
 इन दिनों जेहन में 
 कौंध रहा 
 एक ही सवाल बार-बार
 कहीं, कुछ तो होगा 
 इस घुटन के पार। 
जहां न हो, संस्कारों का कोई बोझ 
जहां न हो,रिश्तों की झूठी डोर 
चल वहीं, बस जाएं अब 
 जहां मुक्त होकर,कर सकें इजहार 
जिंदगी शायद मिले वहीं , कहीं 
 चल चलें ,इस घुटन के पार 
जहां सांस लेने से पहले 
 पूछना न पड़े, कोई सवाल 
 जहां आन- जाने का कोई वक्त न हो मुकर्रर 
 चल वहीं चले मेरे दोस्त 
 जहां लंच करने का वक्त तय न हो 
जहां भागती हुई 
घड़ियों की सुई का कोई भय न हो 
 जहां दफ्तर की 
झूठी अदावत का कोई झंझट नहीं हो 
 जहां प्रेमिका के रूठ
 जाने का कोई वक्त तय नहीं हो 
 जहां पंछी समय देख कर 
 गाना न गाते हों 
 जहां झूठी कसमों का साया न 
हो जहां हर पांच साल बाद 
वाला चुनाव न हो 
 जहां जिंदगी 
किसी थाने के 
 पंचनामें में लिखी 
 केस का कोई नंबर न हो 
 चल चलें उस रास्ते पर 
 जहां एक दूसरे से पीछे 
 रह जाने का मतलब न हो 
 चल चलें उस ओर
 हर पल भागते
 लोगों के समन्दर के पार
 चल चलें इस घुटन के पार
 चल चलें इस घुटन के पार ।

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