Saturday, August 2, 2008

खून से सने हमारे सपने

खून से सने हमारे सपने
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हमारे सपने खून से सने हैं! जमीन पर बिखरी हुई हजारों लाखों लाशों की दुगZध और सड़ाध से भरे हैं! मरने से पहले पानी के लिए तड़पते प्यासे चेहरों, मौत के पहले और बाद के चिल्लाहट, अकुलाहट, डर, खौफ, आंसू , अकेलापन, निराशा और सन्न्ााटे से साराबोर है हमारे सपने। पर हमें पता ही नहीं। आभास तक नहीं है इसका। शायद पता करने का उपाय ही नहीं है। या है हमने कोशिश नहीं की । कारण जो भी हो पर हिला देने वाली (कई मायनों में दिल तोड़ने वाली और दिमाग के परखच्चे उड़ा देने वाली) सच्चाई का एक पहलू यह भी है कि कभी न खत्म होेन वाले हमारे सपने, साथियों के क्रब कीमत पर गढ़े गए हैं। खास हमारे लिए।

दरअसल हम
सपने देखना नहीं छोड़ते।
चाहते भी नहीं ।
प्यारे प्यारे सपने।
खुशियों से भरे ,
स्वर्ग के सपने।
हमारे और आपके सपने।
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द्वितीय विश्व युद्द की लड़ाई की कई मशहूर कहानियों और उनके पात्रोंं से आपका भी परिचय होगा। अब भला सपनों का इन कहानियों से क्या संबंध। है ना। बेहद गहरा संबंध है। आगे बताउंगा। 1944 में यूरोप की जमीन पर लड़ाई जारी थी। उस वक्त भी जर्मनी और मित्र देशों के घरों में रात की आगोश में सोएं लोग सपनो में खोए थे। इधर हालिया कारगील का युद्ध तो आपको याद होगा ना। टाइगर हिल पर हिंदुस्तानी झंडा को वापस लहराने के जारी जद्दोजहद के दौरान आप क्या कर रहे थे। मैं तो सपने देख रहा था। शायद हर रात आप भी सपने ही देख रहे होंगे। वह भी भूल चुके हैं तो दुनिया भर में जारी आंतकवाद और उससे आपको बचाने में जुटे लोगों को आप जानते ही होंगे! क्या? नहीं जानते। मैं भी बड़ा बेशर्म हूं। नहीं जानता। कितनी आसानी से हम यह बोलकर बोझ से बचने की कोशिश करते हैं।
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वापस दूसरे विश्व युद्ध पर आते हैं। यहां एक अजीब सी कहानी भी गढ़ी गई है। सेविंग प्राइवेट रयान तो याद है न आपको। नहीं है। तो जान लीजिए। फिल्म बनी हुई है। जंग की पृष्ठ भूमि पर बनाई जाने वाली मुंबइया मसाला फिल्मों से बेहद अलग इसमें सच्चाई को दिखाने का बेहद खूबसूरत और विभत्स (हां, फिल्म देखते वक्त, कई दफे यही �याल आता है जेहन में ) रूप दिया गया है। जंग की हार और एक बहादुर सैनिक के बचाने की जीत की खूनी जद्दोजहद पर अधारित यह फिल्म आपके सपनों का सही रंग आपके सामने पेश कर देगी। एकदम नंगी तस्वीर। रणभूमि की असली तस्वीर। सीधे जंग के मैदान से। तब शायद आपको यह एहसास हो (न भी हो, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा) । अगर हो तो। समझना थोड़ा आसान रहेगा। कि क्यों मैं सपने को बोçझल बताने की हिमाकत कर रहा हूं।

(
नहीं
यह फिल्म
केवल यूहदियों के लिए नहीं है।
केवल अंगे्रजों के लिए नहीं
केवल कैथोलिक के लिए नहीं
केवल प्रोस्टेंट के लिए बिलकुल नहीं
केवल
हमारे और आपके लिए है।
उन बेगैरत किस्म के लोगों के लिए ।
जिन्हें सिर्फ अपने सपनों की परवाह है।
जहां व्यçक्तगत महत्वकाक्षाएं हावी है हमेशा
लाशों की कीमत पर भी ।
हमारे और आपकी कीमत पर
खुद की कब्र पर )
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हजारों लोगों के खून से सने है ।
आपके सपने । हमारे सपने।
इन पर कई अजनबियों के खून का
अनजान और खौफनाक साया है।
लथपथ जिस्मों और बेजान होते,
कुछ हो चुके
अंग भंग टुकड़ों के बोझ से दबे हैं
सपने खून से सने हुए हैं
हमारे सपने।
आपके सपने।
देशवासियों के सपने।
सपने तो हम मानवों के है
पर पृष्ठभूमि हैं जानवरों वाली है
आदिम एकमद आदिम
लड़ाकू, हिंसालू
मानव जाति के सपने।
खून से लथपथ सपने।
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रेड लाइट पर एक दूसरे से आगे बढ़ने के चक्कर में भिड़ जाने वाले। सौ -हजार रुपये के लिए एक दूसरे की मार-पीट करने वाले। बहादुरी की झूठी मिसाल देने वाले ,कायर और कमजोर किस्म के लोग ,सीधा कहें तो हम और आप । हमारे और आपके जैसे लोग। देश की सरहद सुरक्षित सीमाओं के बहुत अंदर, बेफि्रक होकर कैरियर की सीढ़िया चढ़ते । चलते, रूकते, खाते , सोचते और सोते हुए । संसद और देश में काबिज होते भ्रष्टाचार पर दिन रात चिंता जताते वक्त हम शायद यह भूल जाते हैं कि दुनिया में बहुत सारे लोग महज हमारी छह घंटे की निंद के लिए अपने हर पल जान पर दांव लगा देते हैं। वह न ही हमारे रिश्तेदार है। ना ही कोइ पड़ोसी। सबसे खतरनाक यह है कि हमें कभी मालूम भी नहीं पड़ता कि हमारे सपनों को बचाने के लिए हर पल न जाने कितनी जिंदगी लाशों में बदल जाती है।
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काश, ऐसा नहीं होता ।
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2 comments:

shoonya said...

sapnon ka khoon se sana hona kai bar jaroori hota hai. shayad shani ke swad ke liye. rifle ki nal se sirf vidwansh ki goli nahin srishti ki rahna ke liye panch tatva bhi niklte hain.

shatrujit tripathi said...

ये सैनिक हमारे राजनयिक महत्वाकांक्षा के लिए उस राह पर चल पड़ते हैं जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच का घमासान लाखों निर्दोष स्वजन, अनगिनत सपनों, और परिणाम, सबको नज़रंदाज़ कर जाता है! हम इन लाशों का बोझ फिर भी उठाये शान से घूम सकते हैं क्यों की हम वाकई बड़े अद्भुत किस्म के प्राणी हैं!
मेरे एक क़रीबी मित्र महोदय जो 1971 के मैदानें जंग में मात्र सत्तरह वर्ष के थे! और उस दौरान जो खौफनाक अनुभव उनको उस बदतरीन हालात में मिले उन्हें मैं न जाने कितनी बार उनके मुंह से सुन चुका हूँ! सत्तरह वर्ष, क्या ये उम्र हाथ में रायफल थामने के लिए होते हैं? सत्तरह वर्ष और जंग का मैदान? रात के अँधेरे में लाल शोलों का आभास देतीं गोलियां हजारों की संख्या में सायं सायं करती सर के ऊपर से निकलती जाती हैं, अनवरत, सर उठा की ढेरों सपनें राष्ट्र के नाम जमींदोज! हम एक ठंडी सांस भरेंगे, न्यूज़ चैनल पे टॉक शो देखेंगे जिसमे अलग अलग राजनैतिक पार्टियों के सिपहसलार अपने अपने गाल बजाते नज़र आते हैं! युद्ध कोष में कुछ पैसे डाल देंगे! फिर? फिर क्या, वही मस्ती वही बेफिक्री का आलम!
फिर वो सेविंग प्रायवेट रायन का कैप्टेन जौन एच मिलर हो या सत्तरह वर्ष का वह जंगबाज़! सब यूँ ही भुला दिए जायेंगे!
क्यों की हम थोड़े हट के हैं!