पहले दो शब्द
डायरी के पुराने पन्नों के बीच के कुछ शब्दों पर एक बार फिर नजर गई। उन्हें यहां आपके सामने पेश कर रहा हूं। दिल्ली में मेरे शुरूआती सालों की बात है। मेरे बेहद करीबी एक श�स या यूं कहें दोस्त के पिताजी की मृत्यू हो गई थी। हिल गया था। बुरी तरह कांपा हुआ था। उनकी लाश को दिल्ल्ाी से रवाना करने के बाद रात भर सो नहीं सका था। उस डरावनी रात को डायरी में कुछ शब्द नोट किए थे। पता नहीं किसके लिए। तब भी समझ नहीं पाया था। आज भी कुछ वैसे ही हालात है।
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सादर साथी,
मैं इस जगत का प्रवासी पक्षी हूं। मौसम का पता नहीं। कभी कभार ही आ पता हूं। इस बार आया तो आपके बारे में देखा। दुख हुआ। निश्चय ही कठीन क्षण रहा होगा। पर। उबरना पड़ता है। जागतिक दुनिया की इस सच्चाई का एक बार फिर सामना हुआ। तो शब्द अनायास ही, कहीं से उड़ते हुए मेरे पास चले आए। उन्हीं शŽदों को इक्_ा कर आपके पास भेज रहा हूं। क्योंकि उसे अपने उद्गम के स्ाोत्र पर पहुंचना था। वतुüल जो अधूरा रहा गया था। उसे पूरा जो करना है। यही चक्र है।
`पिता ´
छोटे हाथों की
छोटी-छोटी
अंगुलियों को पकड़
तु�हीं ने तो
मेरे नन्हें पावों को
चलना सिखाया।
रात को
कंधे पर
थपकियां देकर
जागती रातों में
सपना दिखाया।
आज
मेरे हाथ
तु�हारे हाथों को
देख नहीं पाते
पर,
तुम ही थे
या
तुम ही होे
जिसने मुझे
जीना
बतलाया
बोलो ना
तुम हो ना ....
शुक्रिया
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4 comments:
मार्मिक और भावुकता से परिपूर्ण.
अच्छा लिखा आपने.
bahut sundar dil ko chhooone wali panktiyaan likhi hain...
बहुत बढ़िया.
आपका परयास काफी सराहनीय है आज ही आपकी लेखनी की गहराइॆ का अंदाजा हुआ अच़छा लगा साधुवाद के पा_ है आप लिखते रहें संपरक बना रहेगा
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