एक पल को ही सही पर.... कोई तो कहने को अपना हो...
भूला सा ही सही पर.... होठों पर कोई तो नगमा हो...
झूठा ही सही पर... आंखों में कोई तो सपना हो...
शिकवा ही सही पर... तुम्हें मुझसे कुछ तो कहना हो...
छोटा ही सही पर... जीने को कोई तो लम्हा हो....
दर्द ही सही पर.... दिल को कुछ तो सहना हो...
गम ही सही पर.... मुझे तुमसे कुछ तो मिलना हो...
अंधेरा सा ही सही पर.... घर में मेरा भी तो एक कोना हो...
अनजाना ही सही पर.... मेरा तुमसे कोई तो रिश्ता हो...
6 comments:
छोटा ही सही पर... जीने को कोई तो लम्हा हो....
बहुत सुन्दर
झूठा ही सही पर... आंखों में कोई तो सपना हो...
वैसे सपनों के बारे मे आपका क्या खयाल है मान्या जी :)
आपकी कविता बहुत पसंद आई.......
भाई साहब,
अच्छा खासा रिसर्च तैयार किया है… किसे प्रभावित करना चाहते हो…। संदेह ही नहीं मुझे आश्चर्य है…
सबसे पहले मैं बता दूँ किसी को कुछ भी विरासत में नहीं मिलता…जो होता है वह यही होता है…।
रही बात टिप्पणी में अशुद्धियों की तो पहले बता दूं की आशावती शब्द का प्रयोग होता है यह मुझे जरा बताना…वाक्य शुद्ध ही नहीं Structure is also vry much imp....
और टिप्पणी में व्यक्ति वैसे भी भावना में होता है…
ध्यान चूक सकता है…लेकिन तुम्हारी नजर…बाकई
मानना होगा…।
तो आखिर प्रतिक्रिया आ ही गई आपकी,वैसे अच्छा किया जो लिखने की जहमत उठाई........
वैसे ये मैं कहना चाहूँगा कि आप जैसे वाइज़ को ऐसी तीखी प्रतिक्रिया नहीं शोभतीं,अगर कोई कहता है कि आपने ग़लती की है तो एक बार पूरी तरह से सुनिश्चित करें कि ग़लती क्या सचमुच हुई है और यदि हुई है तो कहाँ ताकि आप प्रमाण के साथ जवाब दे सकें?पर आपने ऐसा नहीं किया आपकी तीखी प्रतिक्रिया इसका प्रमाण है।रही बात प्रभावित करने की तो मुझे ऐसा करने की आवश्यकता दिखाई नहीं पड़ती और वैसे भी मेरे जैसा अज्ञानी किसी को क्या प्रभावित करेगा?
आपको बुरा लगा कि आप जैसे पुराने ब्लौगर की ग़लती कोई दूध पीता बच्चा कैसे निकाल सकता है?हाँ मैं ब्लौगजगत में दूध पीता एक अबोध शिशु ही तो हूँ पर आपको मेरे जैसे शिशुओं की क्षमता पर गर्व होना चहिये खैर छोड़ें और यक़ीन मानें मेरा तक़्लीफ़दिही का कोई इरादा नहीं था।
दिव्याभ जी,अच्छा लिखना और शुद्ध लिखना दो अलग-अलग बातें हैं और इन्हीं दोनों का संयोजन एक संपूर्णता देता है।और आपसे मेरा आग्रह है कि इन दोनों बातों को अपने लेखन में उतार कर तो देखें,आप संपूर्ण हो जायेंगे।
यक़ीन मानिये मैं आपका प्रशंसक हूँ और ये मानता हूँ कि आपकी कल्पनाशीलता बहुत स्तरीय है ऐसी की कि जिस पर रश्क़ किया जाना चाहिये पर अगर वो शुद्ध न हो तो ज़रा सोचें कैसा लगेगा?
तो आपसे गुज़ारिश है कि एक बार अपनी सभी रचनाओं का अवलोकन करें आप ख़ुद ही समझ लेंगे कि काफ़ी मूलभूत त्रुटियाँ हैं जैसे अनुस्वार, ह्रस्व-दीर्घ ईकार ऊकार, नुक़्ते वगै़रह। ठीक है कि पद्यों में कुछ छोटी-मोटी त्रुटियाँ स्तुत्य नहीं तो क्षम्य अवश्य हैं पर गद्यों मे त्रुटियों कोई स्थान नहीं और ये समझना आवश्यक है और समझना होगा मुझे,आपको और हम सबको और मैं जानता हूँ कि आप तो काफ़ी समझदार हैं।
आपकी अगली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी देखें कैसी मिलती है?
वैसे भी मैं शायद कभी यह जहमत उठाता भी नहीं क्योंकि न तो मेरे पास वक्त है और ना ही मैं इतना सोंचता हूँ…बात तीखेपन की नहीं,आलोचना से तो व्यक्ति निखारता है, चाटुकारों ने तो पूरा मुगल साम्राज्य मिटा दिया तो-तो इतना समझदार तो हूँ ही…। बात होती है कि क्या कहाँ कैसे किस प्रकार शीलता से कहा जाए… और यह अभाव मुझे दिखा जो कविओं में नहीं होना चाहिए…।किसी दूसरी जगह की टिप्पणी को कहीं से उठाकर उसे अन्य जगह पर अवलोकित करने से मामला उलझ जाता है…आप की प्रतिक्रिया वही की कविताओं और अशुद्धियों पर होती तो मैं शायद यहाँ न होता…।So don't worry i m as always...
मान्या,
अच्छी कविता लिखी है…पर वही प्यास???
लहरों के नीचे भी कई नगर होते हैं,
लहरों के उपर भी कई और होते हैं,
मगर जब नगर बनकर देखेंगे उसे
तो लहरों में मात्र लहरें ही नजर आयेंगी…।
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