Friday, July 13, 2007

अबोध मन की पुकार

अबोध मन की पुकार


जब छोटा था। तब जो मन में भाव आते थे। उसे लिख देता था। सालों बाद जब वह रचनाएं हाथ लगीं। तो आपके साथ बांटने से खुद को रोक नहीं सका।



जीवन का कुछ पता नहीं


कायरों के शहर में
बेनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
नामवालों के शहर में
अनाम सी जिंदगी जिए जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां, लिए जा रही हैं चला जा रहा हूं।
रोने का तो बहुत जी चाहता है,
इन्‍हीं बातों पे हंसा चला जा रहा हूं।
जीवन का तो कुछ पता नहीं
जहां जिए जा रही है चला जा रहा हूं

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे

कुछ और मौन

जाडे की रात
ठंडी हवाएं और लिपटी चादर
अलाव जल रहा है।
चारो तरफ सब बैठे हैं।
बोलते हैं, हंसते हैं।
लडते हैं, झगडते हैं।
पर मैं मौन
शांत ही रहता हूं,
अचानक कुछ घटता है।
एक शांति उतर आती है।
चारो ओर शोर में
मौन का अनुभव
बस मौन ही मौन
कुछ और मौन

दिनांक 27 दिसम्‍बर 1998, रविवार, संध्‍या साढे सात बजे के आसपास



एक बुढिया जो

एक बुढिया जो
आती है दुकान पे
भाव पूछती है
सोचती है कुछ।
पांव कह रहे थे चलो
वह चलकर रूक जाती है
बोझा उतारकर माथा से
बैठ जाती है।

फ‍िर जैसे
बच्‍चों को दुलारती हो वैसे
आलूओं को पुचकारती है
कितना प्रेम बरसता है
फ‍िर, फ‍िर कुछ भी तो नहीं

कुछ रेखाएं उभरती हैं,
माथे पे उसके
उनको पढने का प्रयास करता हूं
पर वह पैसे चुकाकर
चली जाती है
मन कितना अनु‍त्‍तरित रह जाता है।

दिनांक 13 अप्रैल 1996, सोमवार, दोपहर


आज तीन ही। बाकी किस्‍तों में यहीं आती रहेंगी।

3 comments:

Anonymous said...

If an innocence writes something, it just a beat of heart.The words of poem do speaks .... ur thoughts are very innocence as they were before!!!
dimagless

Monika (Manya) said...

तुमने कहा था की कविता के मामले में प्रवासी पंछी हू.. पर लगता है .. ये पंछी बहुत दिनों से बसेरा किये हैं यहां पर.. तीनों बेहद सरल और सहज हैं.. गहरी सोच है... काबिले तारीफ़ लिखा है...कुछ और मौन और एक बुढिया जो ... बेहद पसंद आयी मुझे...शुक्रिया जो इन्हें हमारे साथ बांटा...

जै़गम said...

sanshyatma.................