वो जो खोई-खोई... चुप-चुप सी रहती है....
उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....
बन्द लबों में चुप सी उदासी...
झुकी नज़रों में भरी नमी सी...
फ़िर भी मुस्कान बिखेरा करती है....
उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है...
हर पल मशरूफ़ वो कुछ उलझी सी....
हाथों से झुकी लटों को पीछे करती....
जाने क्या सोचा करती है....
उसकी जुल्फ़ें भी परेशान रहा करती हैं.....
उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....
जाने कहां देखती रहती है गुम सी....
खुले आंचल में लगती बड़ी भली सी...
खुद से भी अनजानी लगती....
उसकी उंगलियां दुपट्टे से खेला करती है...
उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है......
शांत, गहरी, साफ़ आंखें..बिल्कुल आईने सी....
देखती है मुझको...लगती है मुझमें शामिल सी...
पर फ़िर भी एक दूरी सी रहती....
उसकी निगाहें भी सवाल किया करती हैं...
उसकी खामोशी भी जाने क्या कहती है....
1 comment:
खामोशी ही है जो बिना कुछ कहे, जाने क्या क्या कह जाती है।
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