Friday, July 6, 2007

अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए

निदा फाजली

निदा फाजली साहब के क्‍या कहने। उनके बारे में कुछ कहना सूरज को चिराग द‍िखाने के बराबर है। उर्दू शायरी के इस शायर को जिंदगी की कहानी कहने में महारत हासिल है । पेश है उनकी चंद रचनाएं ।


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए


अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
घर में ब‍िखरी हुई चीजों को सजाया जाए।

जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चिरागों को बुझने से बचाया जाए।

बाग में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उडाया जाए।

खुदकुशी करने की हिम्‍मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन इसी तरह औरों को सताया जाए।

घर से बहुत दूर है मस्‍जीद चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्‍चे को हंसाया जाए ।


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे


बदला न अपने आप को जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे।

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोडी बहुत तो जेहन में नाराजगी रहे।

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी करीब रहे दूर ही रहे ।

गुजरो जो बाग से तो दुआ मांगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे।



घूप में निकलों घटाओं में नहाकर देखो


घूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो
जिंदगी क्‍या है किताबों को हटा कर देखो।

वो सितारा है चमकने दो यूं ही आंखों में
क्‍या जरूरी है उसे जिस्‍म बना कर देखो।

पत्‍थरों में भी जुबां होती है दिल होते हैं
अपने घरों की दर ओ दिवार सजा कर देखो।

फासला नजरों का धोखा हो सकता है
वो मिले या ना मिले हाथ बढा कर देखो।



दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है


दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट़टी खो जाए तो सोना है।

अच्‍छा सा कोई मौसम तन्‍हा सा कोई आलम
हर वक्‍त का रोना तो बेकार का रोना है।

बरसात का बादल तो दीवाना है क्‍या जाने
किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है।

गम हो कि खुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं
फ‍िर रस्‍ता ही रस्‍ता है हंसना है न रोना है।


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा


हर घडी खुद से उलझना मुकद़दर है मेरा
मैं ही कश्‍ती हूं मुझमें ही संमदर है मेरा।

किससे पूछूं कि कहां गुम हूं बरसो से
हर जगह ढूंढता फ‍िरता है मुझे घर मेरा।

एक से हो गए हैं मौसमों के चेहरे सारे
मेरी आंखों से कहीं खो गया मंजर मेरा।

मुद़दतें बीत गई ख्‍वाब सुहाना देखे
जागता रहा हर नींद में बिस्‍तर मेरा।

आईना देख के निकला था मैं घर से बाहर
आज तक हाथ्‍ा में महफूज है पत्‍थर मेरा।


मां


बेसन की सोंधी रोटी पर
खट़टी चटनी जैसी मां।
याद आती है चौका बासन
चिमटा फूंकनी जैसी मां ।

बांस की खुर्री खाट के उपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी मां।

चिडियो के चहकार में गुंजे
राधा मोहन अली अली
मुर्गे की आवाज से खुलती
घर की कुडी जैसी मां।

बिवी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्‍सी के उपर
चलती नटनी जैसी मां।

बांट के अपना चेहरा, माथा
आंखें जाने कहां गई
फटे पुराने इक एल्‍बम में
चंचल लडकी जैसी मां।


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है


जिंदगी क्‍या है चलता फ‍िरता इक खिलोना है
दो आंखो में एक से हंसना एक से रोना है।

जो जी चाहे वो मिल जाए कब ऐसा होता है
हर जीवन, जीवन जीने का समझौता है
अब तक जो होता आया है वो ही होना है।

रात अंधेरी भोर सुहानी यही जमाना है
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है
आती सांस को पाना जाती सांस को खोना है।

1 comment:

Unknown said...

bahut accha
bhale aapne na likhi hon lekin collection kafi ummda hai.
sabse khaas baat ye hai ki aapne apne is collection me jindgi ke sare rason ko shamil kiya hai shayad isiliye swad kuch jyada hi accha lag rha hai. or imandari ja lavel bhi kabile tarif hai aapne aasli writer ka naam likh kar निदा फाजली साहब le sath bhi nyay kiya hai.