Tuesday, July 17, 2007

चीख़ !!

बना लो, जितनी बडी कम्यूनिटी बनानी है बना लो! घर में चाहे एकदूसरे को पहचानते हो या नहीं? पर बाहर अपनी एकजुटता का जितना ढिंढोरा पीटना है पीट लो! इंटरनेट पर ब्लोग बनालो! मीडिया में आपसी भाईचारे के नाम पे जितनी शोबाज़ी करनी है कर लो! पर कभी अपने घर मे झाँक कर नहीं देखना की तुम्हारे अपने 'बिहार' में कितने नीच और पतित समाज की फसल उग-बढ़ रही है ! पर तुम्हे इससे क्या? कहीं झड़प हुई चल दिये अपने बिहारीपन का परिचय देने! इंटरनेट पर बैठे और शुरु हो गयें भाईचारे का राग अलापने! पर कभी इस पर भी विचार किया है, कभी इस संबंध में भी कोई कदम उठाने की कोशिश की है की, जहां जिस मिट्टी में पले बढ़े हो, वहीं ऐसे कु-कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, जिसे सुनकर किसी भी भले मानुष की आंखे शर्म-सार हो जायें!

सुपौल, त्रिवेणीगंज की छेदनी देवी अब अपनी चहार दिवारी से पैर बाहर नहीं निकालती! उसके लिये घर का वह बंद कोना ही उसकी सारी दुनिया है! क्यों? क्योंकि, अब वह मुँह दिखाने के लायक नहीं है! पुरा इलाका उसके नंगे उघड़े बदन को देख चुका है! अस्मत तार तार हो चुकी है!अब कैसे वह तन पर कपड़ों के चंद टुकड़े लपेटे बाहर निकलेगी? इस समाज ने तो उसे पूरी तरह "पारदर्शी" बना दिया है! कसूर? कसूर यह है की वह 'डायन' है ऐसा समाज के चंद ठेकेदार कहते हैं, उसने उस इलाके की एक बच्ची पर टोटका कर के मार डाला है! और उसे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये! क्यों, है की नहीं ? भाई ऐसे समय पर ही तो एकत्व की भावना नज़र आती है ! फिर क्या, उस औरत के तन पर ढँकी उस चादर को बात की बात में निकाल फेंका गया ! अब निर्वस्त्र कर के उसे खड़े-खड़े देखते तो भला अच्छा लगता ? तो उसे पुरे मुहल्ले मे निर्वस्त्र घुमाया गया, उसे पीटा गया और इससे भी तमाशे मे आंनद नहीं आया तो, आंख फोड़ देने की धमकी देकर मैला पिलाया गया! खेल खतम, पैसा हज़म !!


हां!एक ब्रेकिंग न्यूज तो बताई ही नहीं ! इतना बड़ा तमाशा हुआ पर कोई OB-VAN पास नहीं फटकी! अजी वही OB-VAN जो चैनल वाले ले कर चलते है, Live Telecast करने के लिये! ताकी आप घर बैठे ही हो रही घटना का आनंद ले सके! ओह, सचमुच अफसोस रहा, नहीं ?? सीधा प्रसारण हो जाता तो मज़ा ही कुछ और होता!! नहीं ???


पर ज़रा रुकिये तो सही जनाब , अभी तो यह शुरुआत है! पटना के पहाड़ी मुहल्ले में एक बच्ची बीमार पड गयी! बस क्या था, आतताइयों ने इसके लिये कमला को ज़िम्मेदार बता दिया! उसे घर से खींचकर इतना पीटा गया की बेचारी वह तथाकथित "डायन" अधमरी हो गयी! कुछ और लोगों को यश मिला।


क्या कहा, कि इनके घर वाले कुछ नहीं करते? करते हैं साहब, ज्यादातर मामलों मे घर वाले ही सब कुछ करते हैं- समाज के ठेकेदारों से मिल के! हां, मगर कमला जैसे कुछ एक घरवाले आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं तो उनकी भी वो पिटाई होती है कि ऊपर बैठे उनके पुरखे तक ज़बान बन्द रखने की क़सम खा लेते हैं !


अब कहां तक बताएँ आपको! अब तो इस पंचायती राज में किसी की भी खैरियत नहीं साहब और ख़ास तौर पर अगर वो महिला है तो पहले इल्ज़ाम तय और तुरन्त फ़ैसला और उसपर तुर्रा ये कि अगर वो महिला दलित है तो सज़ाओं में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है। जैसे जाजापुर (गोह, औरंगाबाद) में वार्ड पार्षद शोभा देवी को डायन बताकर मारा-पीटा गया! और तो और कुछ दिनों पहले पूर्णिया शहर के बीचोंबीच हज़ारों लोगों ने पुलिस की मौज़ूदगी में सावित्री देवी को जान से ही मार डाला!अब लो इस औरत का भी कसूर पूछ रहे हो?कसूर बता बता कर तो थक गया अब कितनी बार बताउँ।


आखिर यह कैसी विकृत मानसिकता और अपराध को प्रशासन का संरक्षण है, जो किसी की बीमारी खातिर बस "मां बहन और बेटी" को दोषी ठहराती है और उसकी बाक़ायदा सजायाफ्तगी भी करती है ? मैं तुम से सिर्फ इस लिये कह रहा हूं की अगर हम बिहार के होकर भी कोई क़दम नहीं उठाते तो दुसरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?। हमारी यह मूक दर्शक भूमिका हमें हर स्तर पर 'अपराधी' ठहरायेगी ! राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को खत्म किया, और दयानंद जी ने विधवा पूनर्विवाह की शुरुआत उस माहौल में की जब धार्मिक रूढ़िवादिता की नींव को हिलाना तक संभव नहीं था ! तो क्या हम आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में इस "डायन प्रथा" को उखाड नहीं फेंक सकते हैं ? या फिर भू-मंडलीकरण के युग में भी हम यूँ हीं मध्ययुगीन कुरीतियों को मूक-बधिर होकर नज़र- अंदाज़ करते रहेंगे ?


सरकार ने डायन प्रथा विरोधी विधेयक बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है! आज भी यह विधेयक कोरे पन्नों मे क़ैद हो के रह गया है! आज जरुरत है इसे सख़्ती से लागू करवाने की!

उठो ! जागो !! वरना आज किसी की मां-बहन को नंगा करके मुहल्ले मे घुमा रहे हैं, गुप्तांगों को सलाखों से दाग रहे हैं, मल-मूत्र पिला रहे हैं, कल शायद हमारे-तुम्हारे घर की भी बारी आ जाये! तब चुल्लू भर पानी लेके डूब मरना! सिर्फ खाना खा कर दफ़्तर और घर आकर टी.वी. देखकर ज़िन्दगी मत ख़त्म करो ! मनुष्य हो तो मनुष्यता की रक्षा के लिये भी अपना योगदान दो! तभी 'स्त्री' का वास्तविक आदर होगा वो स्त्री जो किसी की माँ,बहन और बेटी है तभी उसका सच्चा सम्मान होगा। तभी एक सुंदर समाज की रचना होगी। वरना याद रखो यह "डायन" की आड़ में किया जा रहा बर्बर और पैशाचिक कार्य कल किसी भी घर का ग्रहण बन सकता है, तब देखना कि तुम तब भी मूक दर्शक न बने रह जाओ! तब देखना कि तुम तब भी सोते न रह जाओ!!

और कभी नींद खुले और यह चीख़... तुम्हारे कानों मे पड़े, तो डरना मत, बल्कि ठंडे दिमाग से सोचना कि आखिर कौन है, असली "डायन" ???...!!!
.............................................................dimagless

17 comments:

रवि रतलामी said...

असली डायन तो सचमुच हम हैं - ऐसी घटनाओं पर आंखें मूंदे हुए, कर्महीन लोग...

विभावरी रंजन said...

राजन पाठक जी,
दुर्भाग्य से मैं भी इस मृत समाज का एक हिस्सा हूँ जिसको आपने जगाने की कोशिश की है और पर आज ख़ुश हूँ कि आपकी क़लम ने कुछ आग उगली और हम सभी मरे हुए लोगों में से कुछ को तो जगाने का प्रयास किया ही।पर आपका प्रयास निरर्थक हो जायेगा जानते हैं क्यों? इस लिये कि blogspot.com जहाँ आपने इसे भेजा है वो तो चौकलेट खा के कविताएँ लिखने वालों की दुनिया है(जो बमुश्किल एकाध लाइन शुद्ध लिख पाते हैं),जिन्हें इस सरफोड़ू प्रयास से कोई मतलब नहीं।
अजी यहाँ तो लोग खुश हैं चंद तारीफ़ें सुन के।

"वाह क्या लिखते हैं ??? जी आपकी रचनाओं मे एक ताज़गी की अनूभूति हुई।
??? जी आप जिसे ढूढ रही हैं वो जरूर मिलेगा।"

और जवाब देने वालों के मिजाज़ शरीफ़ का तो कहना ही क्या?फ़ूल कर कुप्पा हुए कुछ यों जवाब देते हैं

'??? जी मैं तो डर रहा था कि पता नहीं मेरी रचना आपको कैसी लगी,पर हौसला-अफ़ज़ाई के लिये बहुत शुक्रिया'
??? सर आपका धन्यवाद कि आपने मेरी सराहना की'

इन रचनाकारों की दुनिया तो बस यही है ये बस यूँ ही एक दूसरे को वजीफ़े देते रहते हैं शुद्धता,वाक्यविन्यास से शून्य और मात्राओं की अनेक त्रुटियों से पूर्ण कवितायें लिखना और कुछ जाहिलों से प्रशंसा पाना, इन्हें क्या मतलब आपकी हृदयस्पर्शी भावनाओं से।

पर विश्वास कीजिए दमदार लिखा है और मैं आपका पूर्ण समर्थन करता हूँ कोई करे न करे!और जहाँ तक पुनर्जागरण और क्रान्ति और सुन्दर समाज के निर्माण का सवाल है तो ये सब चीज़ें एक धीमी प्रक्रिया हैं जो धीरे-धीरे ही होती हैं पर होती अवश्य हैं अगर प्रयास सार्थक और सही दिशा में हों तो।
बहरकै़फ़ आपका बहुत-बहुत धन्यवाद कि इतनी मर्मस्पर्शी बातें लिखीं शायद अब हमारे बिहारी भाइयों के हृदय का कोई कोना गीला हो और कुछ प्रयास हों पुनर्निर्माण के,स्त्री के समुचित सम्मान के............................................

आशीष "अंशुमाली" said...

जरूरत आंख खुलने की है। वरना, नारी तो अंधे को और अंधा बना देती है।

Anonymous said...

रविकांत जी को गुलजारबाग की ओर से मैंने यह रिपोर्ताज मेल किया था, उनकी भी टिप्‍पणी आई थी. मेल पर.उसे भी यहां पब्लिश कर रहा हूं.
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यह लेख ठीक-ठाक है - लेकिन पहले अनुच्छेद के बाद मैं उम्मीद कर रहा था कि व्यंग्य जारी रहेगा, धार और पैनी होगी. पर अभिधात्मक रिपोर्ताज, (जो अपने-आप में निहायत ज़रूरी है, और यहाँ उठाए मुद्दे बल्कुल जीवंत हैं, गुज़रे ज़माने की चीज़ नहीं) शायद वह असर नहीं पैदा कर पाया कि हमारे-जैसे मर्ज़ी से भागे हुए या खदेड़ दिए गए बिहारी झो
ला-डंडा समेट कर वापस बिहार-सेवा में चल दें! दुनिया बड़ी है, बुद्ध पैदा तो बिहार में हुए थे, पर
वे बिहार-तक के तो नहीं रहे. उसी तरह, इंटरनेट द्वारा समुदाय निर्माण के ख़िलाफ़ व्यंग्य की मार
शायद दूर तक जा सकती थी, पर तुरंत वास्तविक बरक्स आभासी के द्वंद्व में फँसकर रह जाती है.
इतना कहने के बावजूद मैं कहूँगा कि राजन जी का दिल सही जगह पर है, वे अच्छा लिख सकते हैं,
रविकान्त

काकेश said...

ये लेख झकझोरने वाला है.ये बतायें कि हम लोग इसके लिये क्या कर सकते हैं. कैसे उठायें आवाज इसके खिलाफ.

सुनीता शानू said...

जब भी पढ़ती हूँ एसी खबरे दिमाग़ साथ नही देता समझ नही आता कैसे इन आतताईयों का सिर फ़ोड़ा जाये...परेशानी की बात तो ये है कि हमारा समाज अन्धविश्वास के चक्र्व्यूह में इस कदर फ़सा रहता है कि ना अच्छा समझ आता है ना हि बुरा...और उस पर दिन-प्रतिदिन बढ़ती इन झूठे साधू-बाबाओ की भीड़...ज्यादा तर आबादी अशिक्षीत है इसिलीये एसा होता है...आये दिन एक ही बात सुनने को आ रही है ये डायन है वो डायन है...मगर जहाँ तक मेरा खयाल है पिछले कई साल पहले डायन आ जायेगी कह कर हमे डराया करते थे या फ़िर डायन की कहानी सुना करते थे...आज तो जगह-जगह डायन पैदा होने लगी है...एसा लगता है हर आदमी का असली चेहरा आज डायन ही हो गया है...और अगर हर घर में से हर औरत इस बात का विरोध करे तो शायद इस समस्या का कुछ हल निकल जाये मगर एसा नही है ...मुझे तो लगता है औरत खुद औरत की दुश्मन हो गई है...कैसे बदलेगी ये विभत्स जीवन प्रथा जो अपने ही बच्चो के सामने एक माँ को नंगा कर रही है भाई के सामने बहन की इज्जत उछाली जा रही है...
कुछ न कुछ कठोर कदम उठाने ही होंगे अन्यथा एक एसा ज्वार आयेगा कि हर घर में बच्चे पैदा होते ही अपनी ही माँ को डायन कहते देर नही लगायेंगे...


सुनीता(शानू)

संजय बेंगाणी said...

यह हमारा दूर्भाग्य है इसे "आप-आप" शब्द के स्थान पर हम शब्द का प्रयोग करें. क्योंकि जिन्हे "आप" कह कर आरोपित कर रहे है उनकी ऐसी घटनाओं में क्या भूमिका है? ये बाते जब तक मीडिया में नहीं आती घटना स्थल से दूर बैठा आदमी कैसे जानेगा और क्या लिखेगा? आपने इसे जाना तो लिखा. हम भी दुख प्रगट करते है. जिस समाज में गंदगी है उसे उन्हे ही दूर करनी होगी. आपकी कलम सही चल रही है, जागृति जरूर आएगी.

Monika (Manya) said...

सबसे पहले तो ये की मैं संजय जी की बात से बिल्कुल सहमत हूं आप की जगह हम का प्रयोग होना चाहिये..ये स्मस्या एक प्रांत या राज्य की नहीं बल्कि पूरे देश और समाज की है...और दोनों हमीं से बने हैं..आपने बिल्कुल ठीक कहा हम इंटरनेट पर तो लोगों से जुड़े हैं.. दुनिया की खबर हमें है.. पर पड़ोस में क्या हुआ हमें नहीं पता... आपने जो मुद्दा उठाया.. वो सचमुच एक ज्वलंत मुद्दा है... सालों से ऐसी खबरें सुनते-पढते आ रहें होंगे हम सब पर पढकर अफ़सोस करने के अलावा शायद ही कुछ किया हो हमने.. शायद जब ये आग खुद हमें जलायेगी तब हम समझेंगे..."डायन" ये शब्द बचपन से सुनते आ रहें हैं हम.. अपनी घर की औरतों से.. बुरी नज़र से बचाने के टीके दादी-नानी सालों से लगाती आई हैं .. हमारे माथे पर.. और नज़र उतारने के भी कई टोटके.. जैसे मिर्च जलाना वगैरह.. अजीब विडंबना है ना..एक औरत ही दूसरी औरत को डायन समझती है.. और बात सिर्फ़ टीके और मिर्च जलाने की होती तो शायद इसे एक मनोवैग्यानिक अंधविश्वास समझ कर भुलाया जा सकता था.. पर ये बात नहीं है.. कुप्रथा है.. जोंक है जो हमारे समाज का खून चूस रही है.. आपकी बहुत आभारी हूं जो आपने इस और हमारा ध्यान आकृष्ट किया... साथ ही ये उम्मीद की बात सिर्फ़ ब्लोग पढने और टिप्प्णी देने तक सीमित नहीं रहेगी... बल्कि ये कलम की आग.. इस सामाजिक कुप्रथा को खाक करके ही दम लेगी... मेरी शुभकामनायें एक उज्ज्वल भविष्य के लिये...

आपके लेखन के लिये जैसा की मैंने पहले भी कहा था.. अभी और गुंजाईश है...खैर कहते हैं की "लोहे के चाकू को जितना इस्तेमाल करो उतनी तेज़ होती अहि उसकी धार"...keep it up..

परमजीत सिहँ बाली said...

हम तो भीतर तक हिल गए है इस लेख को पढ़कर।

ePandit said...

लेख पढ़कर दिल दहल गया। यकीन न हुआ कि इंसान की शक्ल में इस तरह के हैवान भी हमारे समाज में मौजूद हैं। इस तरह के लोग मानवता के नाम पर एक कलंक हैं।

यह सिर्फ उस गांव, उस समाज के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति के लिए शर्म का विषय है।

विभावरी रंजन said...

राजन जी!
आपको ये जानकर अति प्रसन्नता होगी कि हमनें जंग छेड़ दी है और प्रेरणा का जो बिगुल आपने फूँका है उसकी लाज रखने की पूरी कोशिश की है,आज ही अलसुबह हुई एक बैठक में मैंने इस मुद्दे को उठाया है,बैठक में उपस्थित कुछ उच्चपदासीन लोगों से सहयोग का पूर्ण आश्वासन भी मिला है,एक प्रतिनिधि मंडल संबन्धित जगहों पर जा कर लोगों में जागरुकता की लौ जलाने का प्रयत्न करेगा।और आपको यह जान कर खु़शी होगी कि मैं भी उस प्रतिनिधि मंडल में शामिल हूँ,हम विभिन्न पिछड़े इलाकों का दौरा करेंगे और लोगों को इन कुरीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को कहेंगे,उन्हें शिक्षित करेंगे।और हमने काफ़ी लोगों से अपील भी की है कि खुद को प्रेरित करें आगे आएँ और अपने स्तर पर प्रयास करें कि कम से कम समाज की एक कुरीति तो दूर हो।
काफ़ी लोग हमारे साथ जुड़ चुके हैं ,कुछ जल्द ही जुड़ जायेंगे और हर हालत में कल से कार्य प्रारम्भ हो जायेगा।

बस आप हमारी सफलता के लिए दुआ कीजिए।

Anonymous said...

rajan ji,
cheekh padh lehni.lekh aatma jhakjhor delakh.mayee saraswati rauwa lekhni ke lamhar umar des.hamaar sadhuwad kabulien,
raur
bipin bahaar

Udan Tashtari said...

भीतर तक हिला कर रख दिया. झकझोरने वाला आलेख.

Divine India said...

राजन भाई,
मुझे मात्र अफसोस इसे पढ़कर यही हो रहा है कि इसकी पृष्ठभूमि व्यापक न होकर बिहार में व्यापत दिख रही है… साधारणत: व्याप्ति की तरह…। सच कहा जाए तो यह समस्या समस्त राष्ट्र की है, जिसे हम सभी आये दिन समाचारों के माध्यम से देखते आ रहे हैं-- तंत्र-मंत्र-उपासना-राधा बनकर समाज को मूर्ख बनाना आदि। बिहार तो पिछड़ा है ही पर आप देखो कि आज भी पंजाब व हरियाणा स्त्री भ्रूणों की हत्या करने वाला सबसे बड़ा राज्य है…।
आपके लेख में वह पैनापन है जिससे समाज कुछ ले सकता है पर इसमें अगर व्यापकता आ जाये तो यह अद्भुत हो जाएगा…।
कभी-2 अंग्रेजी शासन की विशेषताओं पर भी नजर जाती है…राजा साहब ने गलत नहीं कहा था कि यह गुलामी हमारे पहले की स्वतंत्रता से ज्यादा भली है, नहीं तो आज जिस मकाम पर पहुँच कर हम चीख रहे हैं वह भीतरी महाभारत से समाप्त हो गया होता क्योंकि उस वक्त तो हम "स्वतंत्र गुलाम" थे स्वाधीन नहीं आज भी हम स्वतंत्र जरूर हैं पर स्वाधीन नहीं हुए हैं। इसका एक और एकमात्र कारण है,अशिक्षा…। धन्यवाद!!!

mamta said...

इसको पढ़ते हुए बहुत अजीब सा लग रहा है क्यूंकि ये ऐसी बात है जो आज के समय मे भी सुनने को मिल जाती है। और जैसा की मान्या जी ने कहा हम लोग बचपन से ये शब्द सुनते आ रहे है।

पर सबसे बड़ा सवाल है की क्या हम इसे जरा भी बदल पायेंगे।

Abhay said...

शुक्रिया बहु‍त शुक्रिया

पहले राजन का उनके शानदार लेख के लिए. उन्‍होंने वाकई अच्‍छा लिखा है. आक्रमक तेवर के साथ उन्‍होंने जो प्रहार करने की कोशिश की है वह सफल रही है. उम्‍मीद है कि यह तेवर आगे और भी तेज होगा . वैसे सच कहूं तो मैं खुद भी ऐसे ही किसी मुद़दे पर इसी स्‍टाईल में लिखना चाह रहा था. वैसे मैं आश्‍वस्‍त करना चाहूंगा कि इस बेहतर लेख में मेरी उस चाहत को और भी ज्‍यादा बढा दिया है, जहां तक चीख की बात है तो उन्‍हें बधाई, अकेले इस लेख ने एक दायरे में ही सही समाज में पल बढ रही एक शर्मनाक रीति को दूर करने का भाव उत्‍पन्‍न किया है, चूंकि राजन को मैं आप पाठकों से थोडा ज्‍यादा जानता हूं इसलिए कह सकता हूं कि वे चुप बैठने वालों में नहीं हैं. जल्‍दी ही आपको कुछ ठोस होता दिखेगा, जहां तक उनके लेखन की बात है कि तो उनसे गुजारीश है कि इसे यहां भी जारी रखें.

दूसरा आप तमाम पाठकों का, ब्‍लॉगरों का, जिन्‍होंने इस लेख को पढने का समय निकाला और अपनी प्रतिक्रिया दी, जैसा की ज्‍यादातर कमेंट में द‍िखा, बहुत सारे लोग हिले हुए महसूस करने की बात कर रहे थे, इतना कहना चाहूंगा कि हम ऐसे ही जडो पर लगातार वार करते रहेंगे. आपको, खुद को और सबको झकझोरने का काम आगे भी जारी रहेगा,

गुलज़ारबाग

दिवाकर मणि said...

आपके आलेख ने बिहार के कतिपय तबकों में बैठी हुई सामन्तवादी मानसिकता की पोल खोल दी है । हमसब अपने लोगों पर अत्याचार करके अपने आपको बहादुर समझते है । इसी मानसिकता वाले लोग स्वतंत्रता-प्राप्तिपूर्व अंग्रेजों के तलवे चाट कर संपत्तियुक्त बने । इनकी अवसरवादिता हर जगह चीजों को अपने ढंग से परिभाषित करती है । अगर इनके अनुसार आप नहीं चले तो आप धर्मद्रोही, डायन, भूत-पिशाच- पता नहीं कितने चीजों से नवाजे जायेंगे और हो सकता है कि जो इन महिलाओं के साथ हुआ है, अल्प-परिवर्तन के साथ आपके ऊपर भी आरोपित कियें जाये । इन्हीं सामंतवादी, फासिस्टवादी लोगों के कारण गरीब-दलित जनता आज बंदूक उठाने लगी है । दुःख यह भी है कि जो धर्म के पुरोधा हैं, उन्हें भी अपने छोटे भाईयों के कष्ट दिखलाई नहीं दे रहे है, जिसका नतीजा है कि आज जिस धर्म की हम दुहाई देते नहीं थक रहे हैं, क्षरित हो रहा है ।